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प्रमेयकमलमार्तण्डे
विज्ञानमवग्रहाद्यतिशयवदपरापरचक्षुरादिव्यापारादुत्पन्न सत्स्वतन्त्रतया स्वविषये प्रवर्तते इति प्रमारणान्नराव्यवधानमत्रापि प्रसिद्धमेव । अनुमानादिप्रतीतिस्तु लिङ्गादिप्रतीत्यैव जनिता सती स्वविषये प्रवर्तते इत्यव्यवधानेन प्रतिभासनाभावान्न प्रत्यक्षेति । ततो निरवद्यमेवंविधं वैशद्य प्रत्यक्षलक्षणम्, साकल्येनाखिलाध्यक्षव्यक्तिषु सम्भवेनाव्याप्त्यसम्भवदोषाभावात् । अतिव्याप्तिस्तु दूरोत्सारितव प्रध्यक्षस्वानभिमते क्वचिदप्येतल्लक्षणस्यासम्भवात् ।
समन्धकारादौ ध्यामलितवृक्षादिवेदनमप्यध्यक्षप्रमाणस्वरूपमेव, संस्थानमात्रे वैशद्याविसंवादित्वसम्भवात् । विशेषांशाध्यवसायस्त्वनुमानरूपः, लिङ्गप्रतीत्या व्यवहितत्वान्नाध्यक्षरूपतां प्रति
ज्ञान आदि की अपेक्षा लेकर ही स्वविषय में प्रवृत्त होते हैं । इसलिए इनमें अव्यवधान से प्रतिभास का अभाव होनेसे प्रत्यक्षता का अभाव है। इस प्रकार प्रत्यक्ष का यह वैशद्य लक्षण निर्दोष है, संपूर्ण प्रत्यक्षप्रमाणों में पाया जाता है, अतः इसमें अव्याप्ति और असंभव दोषों का अभाव है। अतिव्याप्ति नामका दोष तो दूर से ही हट गया है क्योंकि जो प्रत्यक्ष नहीं है उनमें कहीं पर भी इस प्रत्यक्षलक्षण का सद्भाव नहीं पाया जाता है। अंधकार आदि में जो अस्पष्टरूप से वृक्षादि का ज्ञान होता है वह भी प्रत्यक्षप्रमाणस्वरूप ही है क्योंकि सामान्यपने से संस्थानमात्र में तो वैशद्य और अविसंवादित्व मौजूद है। वृक्षादिका जो विशेषांश है उसका निश्चय तो अनुमानज्ञान रूप होगा, उस विशेषांश ग्राहक ज्ञानको प्रत्यक्ष नहीं कहेंगे, क्योंकि उसमें लिङ्गज्ञान का व्यवधान है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार से है
जैसे किसी व्यक्ति ने अतिदूर देश में पहिले तो किसी पदार्थका सामान्य आकार जाना, उसे जानकर वह फिर इस प्रकार से विशेष का विवेचन करता है कि जो ऐसे प्राकारवाला होता है वह वृक्ष होता है या हस्ती होता है या पलाल कूटादि होता है, क्योंकि इस प्रकार के आकार की अन्यथा अनुपपत्ति है । इस तरह उत्तरकाल में वह अनुमान के द्वारा विशेष को जानता है, फिर जैसे २ वह पुरुष आगे २ बढ़ता हुआ उस पदार्थके प्रदेश के पास जाता है तब स्पष्ट रूप से जान लेता है । प्रागे आगे बढ़ने पर और प्रदेश के निकट आते जाने पर संस्थान आदि के ज्ञान में जो तरतमता आती जाती है उसका कारण विशदज्ञानावरणी कर्म का तरतमरूप से अपगम होना है।
विशेषार्थ-निकटवर्ती वृक्ष के जानने में भी किसी को उस वृक्षका अतिस्पष्ट ज्ञान होता है, किसी को उससे कम स्पष्ट ज्ञान होता है, तथा अन्य को उससे भी कम
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