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________________ विशदत्वविचार: ५९७ तुल्यजातीयापेक्षया च व्यवधानमव्यवधानं वा प्रतिपत्तव्यं न पुनर्देशकालाद्यपेक्षया । यथा 'उपर्यु परि स्वर्गपटलानि' इत्यत्रान्योन्यं तेषां देशादिव्यवधानेपि तुल्यजातीयानामपेक्षाकृता प्रत्यासत्तिः सामीप्यमित्युक्तम्, एवमत्राप्यव्यवधानेन प्रमाणान्तरनिरपेक्षतया प्रतिभासनं वस्तुनोऽनुभवो वैशद्य विज्ञानस्येति। नन्वेवमीहादिज्ञानस्यावग्रहाद्यपेक्षत्वादव्यवधानेन प्रतिभासनलक्षणवेशद्याभावात्प्रत्यक्षता न स्यात्; तदसारम् ; अपरापरेन्द्रियव्यापारादेवावग्रहादीनामुत्पत्तेस्तत्र तदपेक्षत्वासिद्धः । एकमेव चेदं कहा है वह तुल्यजातीय की अपेक्षा से व्यवधान का निषेध करने के लिये कहा है । देशकाल आदि की अपेक्षा से नहीं । जैसे-ऊपर ऊपर स्वर्ग पटल होते हैं, इसमें वे स्वर्ग के पटल परस्परके देश व्यवधान से स्थित हैं, किन्तु तुल्यजातीय अन्य पटलोंकी अपेक्षा वे अन्तरित नहीं हैं। __ मतलब-स्वर्ग में एक पटल के बाद ऊपर दूसरा पटल है, बीच में कोई रचना नहीं है, किन्तु वे पटल अंतराल लिये हुए तो हैं ही, उसी प्रकार जिस ज्ञानमें अन्य तुल्यजातीय ज्ञानका व्यवधान नहीं है-ऐसे दूसरे ज्ञान की सहायता से जो निरपेक्ष है और जिसमें विशेषाकार का प्रतिभास हो रहा है ऐसा ज्ञान ही विशद कहा गया है, तथा यही ज्ञान की विशदता है जो अपने विषय को जानने में अन्य ज्ञान की सहायता नहीं चाहना, और जिसमें पदार्थका प्रतिभास विशेषाकाररूप से होना ? शंका-ईहा आदि ज्ञानों में अवग्रह आदि ज्ञानों की अपेक्षा रहती है, अत: अव्यवधान रूप से जो प्रतिभास होता है वह वैशद्य है ऐसा वैशद्य का लक्षण उन ईहादिज्ञानों में घटित नहीं होता है, अतः ये ज्ञान प्रत्यक्ष कैसे कहलावेंगे ? समाधान-यह कथन निस्सार है । क्योंकि अवग्रहादि ज्ञानोंकी उत्पत्ति अन्य अन्य इन्द्रियोंके व्यापार से होती है, इसलिये ईहादिकी उत्पत्तिमें अवग्रह आदि की अपेक्षा नहीं पड़ती है। मतलब यह है कि ये अवग्रहादि भेद मूलभूत मतिज्ञान के हैं और वह मतिज्ञान चक्षुरादि इन्द्रियों से उत्पन्न होता है । अतः अवग्रहादिरूप अतिशयवाला तथा अन्य २ चक्षु आदि इन्द्रियोंके व्यापार से उत्पन्न हुआ मतिज्ञान स्वतन्त्ररूप से अपने विषय में प्रवृत्ति करता है, इसलिये यहां पर भी ( ईहादिरूप मतिज्ञान में भी ) प्रमाणान्तर का व्यवधान नहीं होता है । परन्तु अन्य जो अनुमानादि ज्ञान हैं वे लिंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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