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प्रमेयक मलमार्तण्डे
तदुत्पादकाक्षस्यातिदूरदेश दिनकर क र्शनिक रोपहतत्वाददोषोयमिति; अत्राप्यक्षस्योपघातः शक्त ेर्वा ? प्रथमपक्षोऽयुक्तः; तत्स्वरूपस्याविकलस्यानुभवात् । द्वितीयपक्षे तु योग्यतासिद्धिः ; भावेन्द्रियाख्यक्षयोपशमलक्षणयोग्यताव्यतिरे के रणाक्षशक्त व्यवस्थितेः । तल्लक्षणाच्चाक्षात्स्पष्टत्वाभ्युपगमेऽस्म
न्मतप्रसिद्धिः ।
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आलोकोप्येतेन तद्ध ेतुः प्रत्याख्यातः । ततः स्थितमेतद्विशदज्ञानस्वभावं प्रत्यक्षमिति । ननु किमिदं ज्ञानस्य वैशद्य ं नामेत्याह श्रव्यवधानेनेत्यादि ।
प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् ॥ ४ ॥
दूरदेश और सूर्य की किरणों द्वारा उपहत हो जाती हैं, अतः इन्द्रियों से स्पष्ट ज्ञान होता है ।
समाधान - अच्छा तो इनमें भी एक बात यह बताओ कि सूर्यकिरणादिक के द्वारा चक्षु आदि इन्द्रियों का घात होता है, अथवा उनकी शक्ति का घात होता है ? इन्द्रियों का घात होता है ऐसा कहा जाये तो वह विरुद्ध पड़ता है, क्योंकि इन्द्रियों का स्वरूप तो उस ज्ञान के समय में वैसे का वैसा ही दिखाई देता है । दूसरे पक्ष - शक्ति का घात होता है ऐसा कहा जाये तो योग्यता की सिद्धि होती है, क्योंकि भावेन्द्रिय जिसका नाम है ऐसे ज्ञानावरणादि कर्मोंके क्षयोपशम होने को योग्यता कहते हैं इस योग्यता को छोड़कर अन्य कोई इन्द्रियशक्ति सिद्ध नहीं होती है । ऐसी इस क्षयोपशमरूप इन्द्रिय से यदि ज्ञान में स्पष्टता का होना मानते हो तब तो जैनमत की मान्यता की ही प्रसिद्धि होती है ।
इन्द्रियों के समान प्रकाश भी ज्ञान में स्पष्टता का कारण नहीं होता है ऐसा समझना चाहिये, इसलिये यह निश्चय हो जाता है कि विशदज्ञान स्वभाव वाला प्रत्यक्षप्रमाण होता है ।
अब यहां पर कोई पूछता है कि ज्ञान में विशदता क्या है ? तब आचार्य इसका उत्तर इस सूत्र द्वारा देते हैं
सूत्र - प्रतीत्यन्तराव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् ॥ ४ ॥ सत्रार्थ - - अन्य ज्ञानों का जिसमें व्यवधान न पड़े ऐसा जो विशेष आकारादि का जो प्रतिभास होता है, वही वैशद्य है । यहां प्रतीत्यन्तर से व्यवधान नहीं होना
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