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विशदत्वविचारः
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ननु विषयिधर्मस्य विषयेषूपचारात्तत्र स्पष्टास्पष्टत्वव्यवहारे विषयिणोपि ज्ञानस्य तद्धर्मतासिद्धिः कुतः ? स्वज्ञानस्पष्टत्वास्पष्टत्वाभ्याम्, स्वतो वा ? प्रथमपक्षेऽनवस्था । द्वितीयपक्षे त्वविशेषेगाखिलज्ञानानां तद्धमताप्रसङ्गः; इत्यप्यसमीचीनम् ; तत्रान्यथैव तद्धमताप्रसिद्ध: । स्पष्टज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेषाद्धि क्वचिद्विज्ञाने स्पष्टता प्रसिद्धा, अस्पष्ट ज्ञानावरणादिक्षयोपशमविशेषात्त्वस्पष्टतेति । प्रसिद्धश्च प्रतिबन्धकापायो ज्ञाने स्पष्टताहेतू रजोनीहाराद्यावृत्ता(तार्थप्रकाशस्येव तद्वियोगः।
अक्षात्स्पष्टता इत्यन्ये, तेषां दविष्ठपादपादिज्ञानस्य दिवोलू कादिवेदनस्य च तत्प्रसङ्गः।
बौद्ध-विषयी [ ज्ञान के ] धर्म का विषय ( पदार्थ ) में उपचार करने से वहां स्पष्टत्व और अस्पष्टत्व का व्यवहार होता है-अर्थात् ज्ञान स्पष्ट है तो पदार्थ स्पष्ट है ऐसा कहा जाता है और ज्ञान अस्पष्ट है तो पदार्थ अस्पष्ट है ऐसा कह दिया जाता है, यदि ऐसा माना जाय, तो विषयी जो स्वयं ज्ञान है उसमें वे स्पष्टत्व और अस्पष्टत्व धर्म कहां से आये ? अपने को ग्रहण करनेवाले ज्ञानके स्पष्टत्व और अस्पष्टत्वसे आते हैं ? या स्वतः ही आते हैं ? प्रथमपक्ष में अनवस्था दोष पाता है । द्वितीय पक्ष में समानरूप से सभी ज्ञानों में उन दोनों ही स्पष्टत्व और अस्पष्टत्व धर्मों के आने का प्रसंग प्राप्त होता है ?
जैन-यह कथन अयुक्त है। हम जैन ज्ञान में स्पष्टता और अस्पष्टता दूसरी तरह से ही मानते हैं । इसी बातको खुलासारूप में समझाते हैं-स्पष्टज्ञानावरण कर्म के और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशमविशेष से किसी ज्ञान में स्पष्टता और अस्पष्टज्ञानावरणादिकर्मों के क्षयोपशम से किसी ज्ञान में अस्पष्टता आती है। ऐसा सुप्रसिद्ध अक्षय सिद्धान्त है, कि प्रतिबंधक जो आवरण कर्म है उसका अपाय होने से ज्ञान में स्पष्टता आती है। जिस प्रकार रज-धूलि आदि के नाश होनेपर पदार्थ में स्पष्टता-निर्मलता आती है ।
__ अन्य जो मीमांसक हैं वे ज्ञान में स्पष्टता इन्द्रियों से आती है ऐसा मानते हैं, किन्तु ऐसा मानने पर दूरवर्ती वृक्ष आदि के ज्ञान और दिन में उल्लू आदि के ज्ञान सब ही स्पष्ट बन बैठेंगे। क्योंकि ज्ञान में स्पष्टता का कारण इन्द्रियां तो वहां हैं ही।
शंका-उन वृक्षादिक के ज्ञानको उत्पन्न करनेवाली जो इन्द्रियां हैं वे अति
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