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प्रमेयकमलमार्तण्डे इत्यप्यपरीक्षिताभिधानम् ; तस्य परोक्षत्वासम्भवात्, क्षायोपशमिकसंवेदनानां स्वरूपसंवेदनस्यानिन्द्रियप्रधानतयोत्पत्तेरनिन्द्रियाध्यक्षव्यपदेश सिद्धः सुखादिस्वरूपसंवेदनवत् । बहिरर्थग्रहणापेक्षया हि विज्ञानानां प्रत्यक्षतरव्यपदेशः, तत्र प्रमाणान्तरव्यवधानाव्यवधानसद्भावेन वैशद्य तरसम्भवात्, न तु स्वरूपग्रहणापेक्षया, तत्र तदभावात् ।
ततो निर्दोषत्वाद्वै शद्य प्रत्यक्षलक्षणं परीक्षादक्षरभ्युपगन्तव्यं न 'इन्द्रियार्थसन्निकर्पोत्पन्नम्'
कहा है, वैशद्य में भी तरतमता स्वीकार की है। क्योंकि विशद ज्ञानावरण के क्षयोपशम में तरतमता पाई जाती है । अतः एक ही पदार्थ को ग्रहण करते समय एक ही स्थान पर रहे हुए पुरुषों के ज्ञानों में पृथक् २ रूप से वैशद्य की हीनाधिकता देखी जाती है । तथा एक व्यक्ति को भी उसी निकटवर्ती विवक्षित पदार्थ का ज्ञान विशद, विशदतर, विशदतम समय भेद से होता हुआ देखा जाता है । सो वह भी विशदज्ञानावरण के क्षयोपशम की हीनाधिकता होने के कारण ही होता है । एक खास बात यह है कि स्मृति आदि परोक्ष कहे जाने वाले ज्ञान भी स्वस्वरूप के संवेदन में प्रत्यक्ष कहलाते हैं ऐसा श्री प्रभाचन्द्र आचार्य कहते हैं एवं उन ज्ञानों को प्रत्यक्ष मानने में वे हेतु देते हैं कि इन ज्ञानों में अपने आपको जानने में अन्य प्रमाणों का व्यवधान नहीं पड़ता है अतः वे भी स्वग्रहण में प्रत्यक्ष नाम पाते हैं। जैसे-सुखादिक का ज्ञान मानस प्रत्यक्ष कहलाता है वैसे सारे के सारे स्मृति प्रत्यभिज्ञान तर्क अनुमान और आगम सभी ज्ञान अपने आपको संवेदन करने में अन्य तीनों का व्यवधान नहीं रखते हैं, अत: वे सब मानस प्रत्यक्ष कहलाते हैं । किन्तु जब वे स्मृति आदि ज्ञान बाहिरी पदार्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त होते हैं तब उन्हें परोक्ष कहते हैं। क्योंकि तब उनमें प्रमाणान्तर का व्यवधान पाया जाता है। किन्तु प्रत्यक्षनाम से स्वीकार किया हुआ प्रमाण स्व और अन्य घट पट आदि पदार्थों को प्रमाणान्तर के व्यवधान हुए विना ही जानता है, अतः हमेशा ही वह प्रत्यक्ष नाम से कहा जाता है । प्रत्यक्ष प्रमाण का यह "विशदं प्रत्यक्षं" लक्षण अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव इन तीनों ही दोषों से रहित है। इस लक्षण के द्वारा बौद्ध आदिके सिद्धान्त में संमत व्याप्तिज्ञान आदि में मानी गई प्रत्यक्षप्रमाणता का खंडन हो जाता है । स्पष्टत्व [विशदत्व] धर्म पदार्थ का है ऐसा बौद्धों का कहना है सो उनके इस कथन को प्राचार्य ने अच्छी तरह से निरस्त किया है। यदि स्पष्टत्व या अस्पष्टत्व पदार्थ का धर्म होता तो उसी पदार्थ का कभी स्पष्ट ज्ञान और कभी अस्पष्टज्ञान होता है वह कैसे होता ? अतः स्पष्टत्व हो चाहे अस्पष्टत्व
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