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श्रमेयकमलमार्त्तण्डे
कस्याऽप्युपलम्भात् । तस्मादभिप्रायकृतमिह लाघवं गृह्यते । येषां संक्षेपेण व्युत्पत्त्यभिप्रायो विनेयानां तान् प्रतीदमभिधीयते प्रतिपादकस्य प्रतिपाद्याशय वशवर्तित्वात् । 'अकथितम्' [ पाणिनि सू० १/४/५१] इत्यनेन कर्मसंज्ञायां सत्यां कर्मणीप् ।
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ननु चेष्टदेवतानमस्कारकरणमन्तरेणैवोक्तप्रकाराऽऽदिश्लोकाभिधानमाचार्यस्याप्युक्तम् । प्रविन शास्त्रपरिसमाप्त्यादिकं हि फलमुद्दिश्येष्टदेवतानमस्कारं कुर्वारणाः शास्त्रकृतः शास्त्रादौ प्रतीयन्ते ; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्; वाङ् नमस्काराऽकरणेपि कायमनोनमस्कार करणात् । त्रिविधो हि नमस्कारो-मनोवाक्कायकारणभेदात् । दृश्यते चातिलघूपायेन विनेयव्युत्पादनमनसां धर्मकीत्र्यादीनामप्येवंविधा प्रवृत्तिः वाङ् नमस्कार करणमन्तरेणैव "सम्यग्ज्ञानपूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धिः" [ न्यायवि० ११] इत्यादि वाक्योपन्यासात् । यद्वा वाङ् नमस्कारोऽप्यनेनैवादिश्लोकेन कृतो ग्रन्थकृता; तथाहि मा अन्तरङ्गबहिरङ्गानन्तज्ञानप्राप्तिहार्यादिश्री:, प्रण्यते शब्द्यते येनार्थोऽसावाणः शब्दः, मा चारणश्च
आशय के अनुसार कथन किया ही करते हैं । पाणिनिव्याकरण के " अकथितं " इस सूत्र से कर्म अर्थ में "अल्पं सिद्धं लक्ष्म" इन पदों में द्वितीया विभक्ति प्रयुक्त हुई है ।
शंका - इष्टदेव को नमस्कार किये बिना ही शास्त्रकारने जो शास्त्र की शुरुप्रात में श्लोक कहा है वह प्रयुक्त है, क्योंकि निर्विघ्न शास्त्र रचना पूर्ण हो इत्यादि फलों का उद्देश्य लेकर नमस्कार करके शास्त्रकार शास्त्र रचते हैं ऐसा देखा गया है ।
समाधान - यह शंका ठीक नहीं, यद्यपि वाचनिक नमस्कार न किया हो, किन्तु कायिक तथा मानसिक नमस्कार तो किया ही है, मन, वचन, काय के भेद से नमस्कार तीन प्रकार का होता है । देखा भी गया है कि अन्यमती धर्मकीर्ति आदि ने जल्दी से शिष्यों को ज्ञान हो इस बुद्धि से वाचनिक नमस्कार किये विना ही " सम्यग्ज्ञान पूर्विका सर्वपुरुषार्थसिद्धि : " ऐसा प्रारम्भिक सूत्र बनाया है, अथवा ग्रन्थकार माणिक्यनंदी ने इस परीक्षामुख ग्रन्थ की शुरुआत में वाचनिक नमस्कार भी किया है, देखिये - अन्तरंग लक्ष्मी अनंतचतुष्टय और बहिरंग लक्ष्मी अष्ट प्रातिहार्यादिक हैं, उनको "मा" कहते हैं । " ण्यते अर्थ: येन प्रसौ प्रणः माच अणश्च माणो, प्रकृष्टौ माणौ यस्य असौ प्रमाणः " अर्थात् अण कहते हैं शब्द या दिव्यध्वनि को, मा अर्थात् समवसरण आदि विभूति और अण मायने दिव्यध्वनि, ये दोनों गुण असाधारण हैं, अन्य हरि, हर, ब्रह्मा में नहीं पाये जाते हैं, अतः उत्कृष्ट गुणोंके धारक भगवान् सर्वज्ञ ही इस नाम के धारक हुए उनसे अर्थात् अर्हत सर्वज्ञ से अर्थ संसिद्धि होती है
" प्रमाण "
और तदा
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