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________________ प्रतिज्ञाश्लोकः १३ तु नित।मेतन्न व्युत्पादनीयं-पिष्टपेषणप्रसङ्गादित्याह- सिद्धमल्पम्' । प्रथमविशेषणेन व्युत्पादनवत्तल्लक्षणप्रणयने स्वातन्त्र्यं परिहतम् । तदेव आकलङ्कमिदं पूर्वशास्त्रपरम्पराप्रमाणप्रसिद्ध लघुपायेन प्रतिपाद्य प्रज्ञापरिपाकार्थं व्युत्पाद्यते-न स्वरुचिविरचितं-नापिप्रमाणानुपपन्न-परोपकारनियतचेतसो ग्रन्थकृतो विनेयविसंवादने प्रयोजनाभावात् । तथाभूतं हि वदन् विसंवादक: स्यात् । 'अल्पम्' इति विशेषणेन यदन्यत्र अकलङ्कदेवैविस्तरेणोक्त प्रमाणेतरलक्षणंतदेवात्र संक्षेपेण विनेयव्युत्पादनार्थमभिधीयत इति पुनरुक्तत्वनिरासः । विस्तरेणान्यत्राभिहितस्यात्र संक्षेपाभिधाने विस्तररुचि विनेयविदुषां नितरामनादरणीयत्वम् । को हि नाम विशेषव्युत्पत्त्यर्थी प्रेक्षावांस्तत्साधनाऽन्यसद्भावे सत्यन्यत्राऽ तत्साधने कृतादरो भवेदित्याह-'लघीयसः'। अतिशयेन लघवो हि लघीयांसः संक्षेपरुचय इत्यर्थः । कालशरोरपरिमाणकृतं तु लाघवं नेह गृह्यतेतस्य व्युत्पाद्यत्वव्यभिचारात्, क्वचित्तथा विधे व्युत्पाद निरसन किया है, अर्थात् – अकलंक देव से रचित जो कुछ लक्षण है जो पूर्वाचार्य प्रणीत शास्त्रपरम्परा से पाया है उसीको थोड़े उपायों से शिष्यों की बुद्धि का विकास होने के लिए कहा जाता है, अत: स्वरुचि से नहीं बनाया है, और न प्रमाण से प्रसिद्ध ही है, क्योंकि परोपकार करनेवाले ग्रन्थकार शिष्य को ठगने में कुछ भी प्रयोजन नहीं रखते हैं। यदि मन चाहा पूर्व शास्त्र से अप्रसिद्ध बाधित ऐसा लक्षण करते तो वे विसंवादक कहलाते । “अल्पम्" इस विशेषण से जो अन्य ग्रन्थ में अकलंकादि के द्वारा विस्तार से कहा है उन्हींके उस प्रमाण तदाभास लक्षण को संक्षेप से विनेय-शिष्य-को समझाने के लिये कहा जाता है, अतः पुनरुक्त दोष भी नहीं पाता है। शंका-जो लक्षण अन्य ग्रन्थों में विस्तारपूर्वक कहा है उसीको यहां संक्षेप से कहेंगे तो विस्तार रुचिवाले शिष्य उस लक्षण का आदर नहीं करेंगे । जो पुरुष विशेष को जानना चाहता है वह उस विशेष ज्ञान के उपायभूत अन्य ग्रन्थ मौजूद होते हुए इस संक्षेपवाले ग्रन्थ में क्या आदर करेगा। समाधान-ऐसा नहीं है. हम ग्रन्थ कार तो अल्प बुद्धि वाले शिष्यों के लिये कहते हैं अर्थात् संक्षेप से जो तत्त्व समझना चाहते हैं उनके लिये कहते हैं। यहां पर लघुता जो है वह काल की या शरीर की नहीं लेना क्योंकि जो काल से अल्प न हों अर्थात् ज्यादा उम्रवाले हों या अल्प उम्र वाले हों और शरीर से छोटे हों या बड़े हों उनको तो कम बुद्धिवाले होने से समझायेंगे, मतलब-जो शिष्य संक्षेप से व्युत्पत्ति करना चाहते हैं उन शिष्यों के लिये यह ग्रन्थ रचना का प्रयास है, प्रतिपादक तो प्रतिपाद्य के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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