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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
विनाभावविकल लिङ्ग निबन्धनाऽभिनिबोधादिक संशयविपर्यासानव्यवसायज्ञानं च, तस्माद् विपर्ययोऽभिलषितार्थस्य स्वर्गापवर्गादिरनवद्यतत्साधनस्य वैहिकसुखदुःखादिसाधनस्य वा सम्प्राप्तिज्ञप्ति - लक्षणसमीचीन सिद्धय भावः । प्रमाणस्य प्रथमतोऽभिधानं प्रधानत्वात् । न चैतदसिद्धम् ; सम्यग्ज्ञानस्य निश्श्रेयप्राप्तेः सकलपुरुषार्थोपयोगित्वात् निखिलप्रयासस्य प्रेक्षावतां तदर्थत्वात् प्रमाणेतरविवेकस्यापि तत्प्रसाध्यत्वाच्च । तदाभासस्य तुक्तप्रकाराऽसम्भवादप्राधान्यम् । इति' हेत्वर्थे । पुरुषार्थसिद्धयसिद्धिनिबन्धनत्वादिति हेतोः 'तयोः' प्रमाणतदाभासयो 'लक्ष्म' प्रसाधारणस्वरूपं व्यक्तिभेदेन तज्ज्ञप्तिनिमित्त' लक्षणं 'वक्ष्ये' व्युत्पादनार्हत्वात्तल्लक्षणस्य यथावत्तत्स्वरूपं प्रस्पष्टं कथयिष्ये । अनेन ग्रन्थकारस्य तद्व्युत्पादने स्वातन्त्र्यव्यापारोऽवसीयते - निखिललक्ष्यलक्षण भावावबोधाऽन्योपकारनियतचेतोवृत्तित्वात्तस्य ।
ननु चेदं वक्ष्यमाणं प्रमाणेतरलक्षणं पूर्वशास्त्राप्रसिद्धम्, तद्विपरीतं वा ? यदि पूर्वशास्त्राऽप्रसिद्धम् तर्हि तद्द्व्युत्पादनप्रयासो नारम्भरणीयः स्वरुचिविरचितत्वेन सतामनादरणीयत्वात् तत्प्रसिद्ध वह मुख्य है, उसमें प्रधानता प्रसिद्ध भी नहीं है, सम्यग्ज्ञान मोक्ष का कारण होने से सभी पुरुषार्थों में उपयोगी है, तथा बुद्धिमान् इसी सम्यग्ज्ञान के लिये प्रयत्न करते हैं और प्रमाण तथा अप्रमाण का विवेक-भेद भी प्रमाणज्ञान से ही होता है, तदाभास से मोक्षसाधन का ज्ञान इत्यादि कार्य नहीं होते हैं, अतः वह गौण है । " इति " यह अव्यय पद हेतु अर्थ में प्रयुक्त किया है, पुरुषार्थ की सिद्धि और प्रसिद्धि में कारण होने से इस प्रकार " इति" का अर्थ है । " तयोः " अर्थात् प्रमाण और प्रमाणाभास का लक्षण-असाधारण स्वरूप व्यक्तिभेद से जो उनका ज्ञान कराने में समर्थ है ऐसा लक्षण कहूंगा लक्षण तो व्युत्पत्ति- सिद्धि करने योग्य होता ही है अतः उसका स्पष्टरूप यथार्थ लक्षण कहूंगा, इस " वक्ष्ये" पद से ग्रन्थकार आचार्य संपूर्ण लक्ष्य और लक्षण भाव को अच्छी तरह जाननेवाले होते हैं, तथा पर का उपकार करने में इनका मन लगा रहता है, ऐसा समझना चाहिये ।
शंका- यह आगे कहा जानेवाला प्रमाण और तदाभास का लक्षरण पूर्व के शास्त्रों में प्रसिद्ध है या नहीं, यदि नहीं है तो उसका लक्षण करने में प्रयास करना व्यर्थ है क्योंकि वह तो अपने मनके अनुसार रचा गया होने से सज्जनों के द्वारा आदरणीय नहीं होगा, और यदि पूर्व शास्त्र प्रसिद्ध है तब तो बिलकुल कहना नहीं, क्योंकि पिष्टपेषण होगा ।
समाधान - इसका समाधान होने के लिए ही सिद्ध और अल्प ऐसे दो पद दिये हैं । "सिद्ध" इस विशेषरण से व्युत्पादन के समान लक्षण करने में स्वतन्त्रता का
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