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________________ प्रतिज्ञाश्लोकः राहितविपर्यासादिज्ञाननिबन्धनार्थ सिद्धिनिरस्ता । जातिप्रकृत्यादिभेदेनोपकारकार्थसिद्धिस्तु संग्रहीता; तथाहि केवलनिम्बलवणरसादावस्मदादीनां द्वेषबुद्धिविषये निम्बकीटोष्ट्रादीनां जात्याऽभिलाषबुद्धिरुपजायते अस्मदाद्यभिलाषविषये चन्दनादौ तु तेषां द्व ेषः, तथा पित्तप्रकृतेरुष्णस्पर्शे द्वेषो वातप्रकृतेरभिलाषः -- शीतस्पर्शे तु वातप्रकृतेद्वेषो न पित्तप्रकृतेरिति । न चैतज्ज्ञानमसत्यमेव हिताऽहितप्राप्तिपरिहारसमर्थत्वात् प्रसिद्धसत्यज्ञानवत् । हिताऽहितव्यवस्था चोपकारकत्वापकारकत्वाभ्यां प्रसिद्ध ेति । तदिव स्वपरप्रमेयस्वरूपप्रतिभासि प्रमाणमिवाभासत इति तदाभासम् - सकलमतसम्मताऽवबुद्धयक्षणिकाद्य कान्ततत्त्वज्ञानं सन्निकर्षाऽविकल्पक ज्ञानाऽप्रत्यक्षज्ञानज्ञानान्तरप्रत्यक्षज्ञानानाप्तप्ररणीताss लोगों को द्वेषबुद्धि होती है, परन्तु उन्हीं विषयों में निम्ब के कीड़े तथा ऊंट आदि को जाति के कारण ही अभिलाषा बुद्धि पैदा होती है, मतलब - नीम में हमको हेयज्ञान होता है और ऊँट आदि को उपादेय ज्ञान होता है, सो ऐसा विपर्यय होकर भी दोनों ही ज्ञान जाति की अपेक्षा सत्य ही कहलावेंगे, ऐसे ही हम जिसे चाहते हैं ऐसे चन्दन आदि वस्तु में उन ऊंट आदि को द्व ेष बुद्धि होती है - हेयबुद्धि होती है, पित्तप्रकृतिवाले पुरुष को उष्णस्पर्श में द्वेष और वात प्रकृतिवाले पुरुष को उसी में अभिलाषा होती है और इसके उल्टे शीतस्पर्श में पित्तवाले को राग-स्नेह और वात प्रकृतिवाले को द्वेष पैदा होता है, किन्तु इन दोनों के ज्ञानों को असत्य नहीं कहना, क्योंकि यह य का परिहार और उपादान की प्राप्ति कराने में समर्थ है, जैसे प्रसिद्ध सत्यज्ञान समर्थ है | दूसरी बात यह भी है कि हित और अहित की व्यवस्था या व्याख्या - लक्षण तो उपकारक और अपकारक की अपेक्षा से होता है, जो उपकारक हो वह हित और जो अपकारक हो वह अहित कहलाता है, उसके समान अर्थात् स्व पर प्रमेय का स्वरूप प्रतिभासित करने वाले प्रमाण के समान जो भासे - मालूम पड़े वह तदाभास कहलाता है, वह तदाभास मायने प्रमाणाभास अनेक प्रकार का है, सभी के मत को माननेवाली है बुद्धि जिनकी ऐसे विनय वादी, सर्वथानित्य, सर्वथा क्षणिक इत्यादि एकान्तमती का तत्त्वज्ञान, प्राप्तलक्षरण से रहित पुरुषों के द्वारा हुआ ग्रागम, सन्निकर्ष, निर्विकल्पज्ञान, अप्रत्यक्षज्ञान, ज्ञानान्तरवेद्यज्ञान, प्रविनाभावरहित अनुमानज्ञान, उपमादिज्ञान, संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय ये सबके सब ही ज्ञान तदाभास - प्रमाणाभास कहलाते हैं, क्योंकि इन ज्ञानों से विपर्यय होता है - अपने इच्छित स्वर्ग, मोक्ष का निर्दोष बोध नहीं होता है, तथा इस लोक में सुख दुःख के साधन भूत पदार्थों का सत्यज्ञान प्राप्ति आदि सिद्धियां भी नहीं होती हैं, श्लोक में प्रमाण पद पहिले ग्रहण हुआ है क्योंकि Jain Education International ११ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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