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________________ प्रतिज्ञाश्लोकः माणी, प्रकृष्टौ महेश्वराद्यसम्भविनौ माणौ यस्याऽसौ प्रमाणो भगवान् सर्वज्ञो दृष्टष्टाऽविरुद्धवाक् च, तस्मादुक्ताकारार्थ संसिद्धिर्भवति तदभासात्त महेश्वरादेविपर्ययस्तत्संसिद्धयभावः । इति वक्ष्ये तयोलक्ष्म 'सामग्री विशेषविश्लेषिताऽखिलावरणमतीन्द्रियम्' इत्याद्यसाधारणस्वरूपं प्रमाणस्य । किविशिष्टम् ? सिद्ध वक्ष्यमाणप्रमाणप्रसिद्धम्, तद्विपरीतं तु तदाभासस्य ; तच्चाऽल्पं संक्षिप्त यथा भवति तथा, लघीयसः प्रति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्मेति । शास्त्रारम्भे चाऽपरिमितगुणोदधेर्भगवतो गुणलवव्यावर्णनमेव वास्तुतिरित्यलमतिप्रसङ्गेन ।। प्रमाणविशेषलक्षणोपलक्षणाकाङ क्षायास्तत्सामान्यलक्षणोपलक्षणपूर्वकत्वात् प्रमाणस्वरूपविप्रतिपत्तिनिराकरणद्वारेणाऽबाधतत्सामान्यलक्षणोपलक्षणायेदमभिधीयते स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।। १ ।। भास से अर्थात् महेश्वरादि से विपर्यय-अर्थसिद्धि का अभाव होता है, इस कारण मैं उन उन प्रमाण और तदाभास का लक्षण कहंगा, अर्थात् अर्हतादि का लक्षण "सामग्री विशेष विश्लेषिताखिलावरण मतीन्द्रियमशेषतो मुख्यम्" इत्यादि सूत्र से कहूंगा, यह लक्षण कैसा है ? सिद्ध है अर्थात् प्रमाण का लक्षण तो प्रसिद्ध है और तदाभास की समीचीनता सिद्ध नहीं है, ऐसा वह लक्षण संक्षिप्तरूप से अल्पबुद्धि वालों के लिये कहूंगा। इस प्रकार शास्त्र की आदि में अपरिमित गुणों के धारक भगवान् के थोड़े से गुणों का वर्णन करना ही वाचनिक नमस्कार है। अतः नमस्कार के विषय में ज्यादा कहने से अब वस रहो । प्रमाण का सामान्य लक्षण पूर्वक ही विशेष लक्षण होता है, अतः प्रमाण के स्वरूप के बारे में जो विवाद है उसे दूर करते हुए अबाधित ऐसा सामान्य लक्षण कहते हैं । स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।।१।। स्व का और अन्य घटादि पदार्थों का संशयादि से रहित निश्चय करनेवाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है । ___ इस सूत्र में "प्रमाण की अन्यथानुपपत्ति" ऐसा हेतु है, विशेष्य को अन्य से पृथक् करना विशेषण का फल है। अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव इस प्रकार लक्षण के तीनों दोषों से रहित तथा अन्यमतों के प्रमाणों के लक्षण का निरसनकरने वाला यह प्रमाणका लक्षण श्री माणिक्यनंदो प्राचार्य के द्वारा लक्षित किया गया है, इस प्रमाण के पांच विशेषण हैं-स्त्र, अपूर्व, अर्थ, व्यवसायात्मक और ज्ञान, इनमें से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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