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प्रमेयकमलमार्तण्डे
चित्रकूटेस्तीति देशभेदेन, द्रव्यं गुणः कर्म चास्तीति द्रव्यादिभेदेन च प्रत्ययभेदसनावात्प्राक्सत्तादयः सत्ताभेदाः किन्नष्यन्ते ? प्रत्ययविशेषात्तद्विशेषणान्येव भिद्यन्ते तस्य तन्निमित्तकत्वान्न तु सत्ता, ततः सकैवेत्यभ्युपगमे अभावभेदोपि मा भूत्सर्वथा विशेषाभावात् ।
अथाभिधीयते- 'अभावस्य सर्वथैकत्वे विवक्षितकार्योत्पत्ती प्रागभावस्याभावे सर्वत्राभावस्याभावानुषङ्गात्सवं कार्यमनाद्यनन्तं सर्वात्मकं च स्यात् । तदप्यभिधानमात्रम् ; सत्तं कत्वेपि समानत्वात् । विवक्षितकार्यप्रध्वंसे हि सत्ताया अभावे सर्वत्राभावप्रसङ्गः तस्या एकत्वात्, तथा च सकल
समाधान-तो फिर सत्ता में यही बात कहनी होगी देखिये पहले था, पीछे होगा, अभी है, इस प्रकार काल भेद से भेद, पाटलीपुत्र में है, चित्रकूट में है, इत्यादि देश के भेद से भेद, द्रव्य है, गुण है, कर्म है, इत्यादि द्रव्य के भेद से भेद इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्त से सत्ता में भेद हैं ऐसा भी मानना चाहिये ? द्रव्यादिकारणों का भेद तो मौजूद ही है ? तथा स्वयं सत्ता में भी "पहली सत्ता" पीछे की सत्ता इत्यादि भेद होना संभव है अतः सत्ता के भेद क्यों नहीं माने जाते हैं ।
मीमांसक-द्रव्यादि कारण विशेष से उस सत्ता के मात्र विशेषण ही भिन्न भिन्न हो जाते हैं, क्योंकि द्रव्यादि विशेष विशेषणोंके निमित्त हैं । किन्तु सत्ता में ऐसी बात नहीं है, अर्थात् सत्ता में विशेषणों के निमित्त का अभाव है अतः सत्ता एक ही है ?
जैन-तो फिर यह बात प्रभाव के विषय में भी लागू होगी ? अभाव में भी प्रागभाव आदि भेद नहीं मानने चाहिये ? कोई विशेषता नहीं है ।
मीमांसक - अभाव को सर्वथा एक रूप मानने में आपत्ति है, देखो ! विवक्षित कोई एक कार्य उत्पन्न होने में प्रागभावका अभाव होनेपर सब जगह अभाव का अभाव हो जायगा ? और फिर सभी कार्य अनादि और अनंत हो जायेंगे, तथा वे कार्य सर्वात्मक सर्व रूप हो जायेंगे । अर्थात् प्रागभाव नहीं है तो कार्य अनादि हुआ प्रध्वंसाभाब नहीं माने तो कार्य अनंत होगा, तथा इतरेतराभाव नहीं है तो कार्य सब रूप एकमेक होवेगा।
जैन-यह कथन ठीक नहीं है, सत्ता में एकत्व मानने पर भी यही आपत्ति आयेगी उसी को बताते हैं-विवक्षित एक कार्य नष्ट होने पर उसके सत्ता का अभाव हो गया तो सर्वत्र सभी का अभाव हो जायगा क्योंकि सत्ता एक है, तथा एक जगह की
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