SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 624
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः ५७३ नापि प्रागभावः तस्याप्यर्थादर्थान्तरस्य प्रमाणतोऽप्रतिपत्त ेः । ननु स्वोत्पत्तेः प्राग्नासीद् घट:' इति प्रत्ययोsसद्विषय:, सत्प्रत्यय विलक्षणत्वात्, यस्तु सद्विषयः स न सत्प्रत्ययविलक्षरणो यथा ' सद्द्रव्यम्' इत्यादिप्रत्ययः, सत्प्रत्ययविलक्षरणश्चायं तस्मादसद्विषय: इत्यनुमानात्ततोऽर्थान्तरस्थ प्रागभावस्य प्रतीतिरित्यपि मिथ्या; 'प्रागभावादी नास्ति प्रध्वंसादिः' इति प्रत्ययेनानेकान्तात् । तस्याप्यसद्विषयत्वेऽभावानवस्था । अथ 'भावे भूभागादौ नास्ति घटादि:' इति प्रत्ययो मुख्याभावविषय:, 'प्रागभावादौ नास्ति प्रध्वंसादि:' इति प्रत्ययस्तूपचरिताभावविषयः, ततो नानवस्थेति; तद है [ अभाव विषयवाला है ] क्योंकि सत् रूप ज्ञान से विलक्षण है, जो सतु को विषय करता है वह सत् के ज्ञान से विलक्षण नहीं होता, जैसे "सद् द्रव्यं" द्रव्य सत् रूप है, इत्यादि प्रत्यय सत् प्रत्यय से विलक्षण नहीं होते हैं, यह जो प्रत्यय है वह सत् प्रत्यय से विलक्षण है, अतः असत् विषयवाला है, इस पंचावयव पूर्ण अनुमान के द्वारा पदार्थ से पृथकभूत प्रागभाव की सिद्धि होती है ? जैन - यह अनुमान मिथ्या है, आपका "सत्प्रत्यय विलक्षणत्वात् " सत् के ज्ञानसे विलक्षण है, ऐसा जो हेतु है वह अनैकान्तिक दोष युक्त है, देखिये प्रागभाव आदि में प्रध्वंसाभाव नहीं है ऐसा ज्ञान होता है, वह तो असत् विषयवाला नहीं है किन्तु सत् प्रत्यय से तो विलक्षण है ? यदि इस प्रत्यय को भी असत् विषयवाला ही माने तो प्रभावों की अनवस्था आती चली जायगी । भावार्थ - प्रागभाव प्रादि में प्रध्वंसाभाव प्रादि नहीं हैं ऐसा नास्ति का ज्ञान है वह सत् से तो विलक्षण है, किन्तु प्रसत् विषयवाला तो नहीं है, अतः जो सत् से विलक्षण होता है वह ज्ञान सतु विषयवाला ही होता है ऐसा अविनाभाव बनता नहीं, इसलिये "सत्वलक्षणत्वात् " हेतु अनैकान्तिक हो जाता है । मीमांसक - आपने जो हेतु को प्रनैकान्तिक कहकर अनवस्था का दोष दिया है वह ठीक नहीं है, बात ऐसी है कि सद्भाव रूप भूमि भाग आदि में जो "घट नहीं" ऐसा ज्ञान होता है वह तो मुख्य रूप से ही प्रभाव को विषय करनेवाला है, किन्तु प्रागभाव आदि में " प्रध्वंसाभाव आदि नहीं है" ऐसा जो ज्ञान होता है वह उपचरित प्रभाव को विषय करनेवाला है, इस प्रकार प्रभाव में अंतर होने से अनवस्था दोष नहीं आता है ? जैन —- यह कथन अयुक्त है इस तरह से प्रागभावादि में होनेवाले प्रभाव को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy