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________________ ५५६ प्रमेयकमलमार्तण्डे न्त रग्रहणे सति प्रवत्त, तदसंसृष्टतावगमश्च पुनरप्यभावप्रमाणसम्पाद्य इत्यनवस्था । प्रथमाभावप्रमाणात्तदसंसृष्टतावगमे चान्योन्याश्रयः । प्रतियोगिनोपि स्मरणं वस्त्वन्तरसंसृष्टस्य, असंसृष्टस्य वा ? यदि संसृष्टस्य ; तदाऽभावप्रमाणाप्रवृत्तिः । अथासंसृष्टस्य ; ननु प्रत्यक्षेण वस्त्वन्तरासंसृष्टस्य प्रतियोगिनो ग्रहणे तथाभूतस्यास्य स्मरणं स्यान्नान्यथा । तथाभ्युपगमे च तदेवाभावप्रमाणवैयर्थ्यं 'वस्त्वसङ्करसिद्धिश्च तत्प्रामाण्यं समा. श्रिता' इत्यादिग्रन्थविरोधश्च । वस्तुमात्रस्याध्यक्षेण ग्रहणाभ्युपगमे प्रतियोगीतरव्यवहाराभावः । समाधान-तो फिर वह अभावप्रमाण घट के संबंध से रहित भूतल के ग्रहण होनेपर ही प्रवृत्त होगा, और उसमें घट की असंसृष्टता का ज्ञान अन्य दूसरे प्रभाव प्रमाण से जाना जायेगा। इस तरह प्रभाव प्रमाणों की कल्पना करने से अनवस्था होगी। यदि प्रथम अभाव प्रमाण से ही घट की असंसृष्टता का ज्ञान होना कहोगे, तो अन्योन्याश्रय दोष आवेगा प्रथम अभाव प्रमाण से प्रतियोगी के संबंध से रहितपने का भूतल में ज्ञान होगा और उस ज्ञान के होनेपर प्रथम अभाव प्रमाण की उत्पत्ति होगी इस प्रकार उभयासिद्धि होगी। अभाव प्रमाण की सामग्री में प्रतियोगी का स्मरण होना भी एक कारण कहा गया है सो वस्त्वन्तर से संसृष्ट हुए प्रतियोगी का स्मरण प्रभाव का कारण होता है या उससे असंसृष्ट हुए प्रतियोगी का स्मरण अभाव का कारण होता है ? वस्त्वन्तर-भूतल से संसृष्ट हुए प्रतियोगी का स्मरण अभाव प्रमाण का कारण होता है ऐसा कहो तो अभाव प्रमाणकी प्रवृत्ति ही नहीं हो सकेगी ? [क्योंकि भूतल जब प्रतियोगी से संसृष्ट प्रतीत हो रहा है तब अभाव प्रमाण के द्वारा उसका प्रभाव कैसे किया जा सकता है ] भूतल से असंसृष्ट हए प्रतियोगी का स्मरण अभाव का कारण होता है ऐसा दूसरा पक्ष कहो तो प्रत्यक्ष के द्वारा वस्त्वन्तर से असंसृष्ट प्रतियोगी का ग्रहण होनेपर ही उस तरह के प्रतियोगी का स्मरण हो सकता है अन्यथा नहीं। यदि इस तरह प्रत्यक्ष के द्वारा प्रतियोगी से असंसृष्टपने' का ज्ञान हो जाता है तो अभावप्रमाण व्यर्थ ठहरता है और आपके ग्रन्थोक्त वाक्य की प्रसिद्धि भी होगी कि-"वस्तुके असंकरताकी सिद्धि प्रभावप्रमाणके प्रामाण्य पर समाश्रित है" ( अर्थात् अभावप्रमाणको प्रामाणिक माननेपर ही वस्तुओं का परस्परका असांकर्य सिद्ध होगा, अभावप्रमाण ही एक वस्तुका दूसरे वस्तुमें अभाव सिद्ध करता है इत्यादि )। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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