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अभावस्य प्रत्यक्षादावन्तर्भावः
यदि चानुभूतेपि भावे प्रतियोगिस्मरणमन्तरेणाभावप्रतिपत्तिर्न स्यात्, तर्हि प्रतियोग्यप्यनुभूत एव स्मर्त्तव्यो नान्यथा प्रतिप्रसङ्गात् । तदनुभवश्चान्यासंसृष्टतयाऽभ्युपगन्तव्यः, तस्याप्यन्यासंसृष्टताप्रतिपत्तिस्ततोऽन्यत्र प्रतियोगिस्मरणात् तत्राप्ययमेव न्याय इत्यनवस्था । अथ प्रतियोगिनो भूतलस्य स्मरणाद् घटस्यान्यासंसृष्टता प्रतीयते, तत्स्मरणाच्च भूतलस्य तदेतरेतराश्रयः; तथाहि न यावद्घटासंसृष्टभूभागप्रतियोगिस्मरणाद् घटस्य भूतलासंसृष्टताप्रतिपत्तिर्न तावत्तत्स्मरणाद्भ ूतलस्य घटासंसृष्टताप्रतिपत्तिः, यावच्च भूतलस्य घटासंसृष्टता न प्रतीयते न तावत्तत्स्मरणेन घटस्येति । ततोऽन्य प्रतियोगि
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शंका – प्रत्यक्ष द्वारा सिर्फ वस्तु मात्रका [ भूतलका ] ग्रहण होता है [ अन्यका नहीं ] |
समाधान- - इस तरह स्वीकार करने पर तो प्रतियोगी और इतर अर्थात् घट और भूतलका व्यवहार ही समाप्त होगा । दूसरी बात यह विचारणीय है कि यदि प्रत्यक्ष के द्वारा भूतल को जान लेने पर भी प्रतियोगी के स्मरण हुए बिना घट के अभाव की प्रतीति नहीं हो सकती ऐसा स्वीकार करे तो प्रतियोगी [ घट ] भी अनुभूत होने पर ही तो स्मरण करने योग्य हो सकेगा, अन्यथा नहीं यदि बिना अनुभूत किये को स्मरण करने योग्य मानेंगे तो प्रतिप्रसंग आयेगा । प्रतियोगी का अनुभव भी अन्य की असंसृष्टता से होना मानना पड़ेगा, फिर उस घट के अनुभव की प्रतिपत्ति भी अन्य जगह के प्रतियोगी के स्मरण से होवेगी । उसमें भी पूर्वोक्त न्याय रहेगा इस तरह अनवस्था प्राती है ।
शंका- अनवस्था को इस प्रकार से हटा सकते हैं, प्रतियोगी भूतल के स्मरण से घटकी अन्य असंसृष्टता का ज्ञान होगा और उस स्मरणसे भूतलकी अन्य प्रसंसृष्टता का ज्ञान होगा ।
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समाधान - इस तरह मानने पर तो अन्योन्याश्रय दोष आवेगा, उसी को बताते हैं जब तक घट में असंसृष्ट भू भाग में प्रतियोगी के स्मरण से घट की भूतल के साथ असंसृष्टता है ऐसी प्रतिपत्ति नहीं होगी तब तक उस स्मरणसे भूतल में घटकी असंसृष्टता है ऐसी प्रतिपत्ति नहीं हो सकेगी, और जब तक भूतल में घट असंसृष्टता प्रतीति में नहीं आयेगी तब तक उसके स्मरण से घटसे प्रसंसृष्ट भू भाग प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा । अतः इन
को दूर करने के लिये ऐसा मानना चाहिये कि अन्य प्रतियोगी के स्मरण के विना ही प्रत्यक्ष द्वारा प्रभावांश जाना जाता है, जैसे भावांश जाना जाता है । भूतल से रहित
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