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________________ शक्तिस्वरूपविचारः ५४१ किव, कथं वा महेश्वरस्याखिलकार्यकारित्वम् ? सहकारिरहितस्य तत्कारित्वे सकलकार्याणामेकदैवोत्पत्तिप्रसङ्गात् । तत्सहितस्य तत्कारित्वे तु तेपि सहकारिणोऽन्यसहकारिसहितेन कर्त्तव्या इत्यवस्था । पूर्वपूर्वादृष्टसहकारिसमन्वितयोरात्मेश्वरयोः उत्तरोत्तरादृष्टाखिल कार्यकारित्वे निखिल - भावानां पूर्वपूर्वशक्तिसमन्वितानामुत्तरोत्तरशक्त्युत्पादकत्वमस्तु, अलं मिथ्याभिनिवेशेन । यच्चान्यदुक्तम्-शक्तिः शक्तिमतो भिन्नाभिन्ना वेत्यादि; तदप्ययुक्तम्; तस्यास्तद्वतः कथञ्चिद्भ ेदाभ्युपगमात् । शक्तिमतो हि शक्तिभिन्ना तत्प्रत्यक्षत्वेप्यस्याः प्रत्यक्षत्वाभावात्, कार्यान्यथानुपपत्त्या तु प्रतीयमानासौ । तद्वतो विवेकेन प्रत्येतुमशक्यत्वादभिन्नति । न चात्र विरोधाद्यवतारः; तदात्मक वस्तुनो जात्यन्तरत्वात् मेचकज्ञानवत्सामान्यविशेषवच्च । होती तो अमुक कार्य निष्पन्न नहीं होता, यही कार्यान्यथानुपपत्ति है ] शक्तिमान पदार्थ से वह शक्ति प्रभिन्न इस अपेक्षा से है कि वह पृथकरूप से दिखाई नहीं देती है । इस प्रकार स्याद्वाद के अभेद्य किले से सुरक्षित यह शक्तिमान और शक्ति की व्यवस्था अखंडित रहती है, इसमें विरोध आदि दोषोंका प्रवेश तक भी नहीं हो पाता है, क्योंकि अपने गुणों से कथंचित् भिन्न और कथंचित् प्रभिन्न रूप मानी गई वस्तु पृथक ही जाति की होती है, श्रर्थात् वस्तु न सर्वथा भेदरूप ही है और न सर्वथा अभेद रूप ही है । वह तो मेचक ज्ञानके समान अथवा सामान्य विशेष के समान अन्य ही जाति की होती है । तथा नैयायिक ने कहा है कि एक शक्तिमान में एक ही शक्ति रहती है, या अनेक शक्तियां रहती है- इत्यादि, सो उस पर हम आपको बताते हैं कि पदार्थ में अनेक शक्तियां रहा करती हैं, देखो ! कारण अनेक शक्ति युक्त होते हैं, क्योंकि वे अनेक कार्यों को करते हैं, जैसे घटादि पदार्थ अनेक शक्तियुक्त होने से ही अनेक कार्यों को करते हैं । अथवा विचित्र - नाना प्रकार के कार्य जो होते हैं वे कारणों के विचित्र शक्ति भेद से ही होते हैं, क्योंकि वे विचित्र [ अनेक ] कार्य हैं, जैसे भिन्न भिन्न पदार्थों के कार्य भिन्न भिन्न ही हुआ करते हैं । इसी विषय का और भी खुलासा करते हैं । कारणों में शक्ति भेद हुए विना कार्यों में नानापना हो नहीं सकता, जैसे रूप रस, गंधादि ज्ञानों में होता है, अर्थात् जिस प्रकार ककड़ी आदि पदार्थ में रूप आदि के ज्ञान होते हैं, वे ककड़ी के रूप रस आदि स्वभावों के भेद होने से ही होते हैं, ककड़ी में अलग अलग रूप रसादि स्वभाव न हो तो उनका अलग अलग ज्ञान कैसे होता ? क्षण स्थिति वाले एक ही दीपक श्रादि से भी बत्ती जलना, तैल समाप्त करना आदि अनेक कार्य होते हैं, वे शक्तियों के भेद बिना कैसे होते ? यदि उत्पन्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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