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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे यदप्य भिहितम् शक्तादशक्ताद्वा तस्याः प्रादुर्भाव इत्यादि; तत्र शक्तादेवास्याः प्रादुर्भावः । न चानवस्था दोषाय ; बोजाङ कुरादिवदनादित्वात्तत्प्रवाहस्य । वर्तमाना हि शक्तिः प्राक्तनशक्तियुक्ते. नार्थेनाविर्भाव्यते, सापि प्राक्तनशक्तियुक्तेनेति पूर्वपूर्वावस्थायुक्तार्थानामुत्तरोतरावस्थाप्रादुर्भाववत् । कथं चैववादिनोऽदृष्टस्याप्याविर्भावो घटते ? तद्ध्यात्मना अदृष्टान्तरयुक्तेनाविर्भाव्यते, तद्रहितेन वा? प्रथमपक्षेऽनवस्था । द्वितीयपक्षे तु मुक्तात्मवत्तस्य तज्जनकत्वासम्भवः । प्रकट किया जाता है, वह अन्य अदृष्ट से युक्त हुए आत्मा से प्रकट किया जाता है, या बिना अदृष्ट युक्त हुए आत्मा से प्रकट किया जाता है ? यदि अन्य अदृष्ट से युक्त होकर वह आत्मा अदृष्ट को उत्पन्न करता है, तो अनवस्था तैयार है । दूसरा पक्षआत्मा अन्य अदृष्ट से युक्त नहीं होते हुए ही अदृष्ट को उत्पन्न करता है, तो मुक्त जीवों की तरह संसारी जीव भी अदृष्ट को उत्पन्न नहीं कर सकेंगे ? तथा आप यदि शक्ति और शक्तिमान में परंपरारूप अनादिपना मानने में अनवस्था दोष देते हैं तो ईश्वर संपूर्ण कार्योंका कर्ता है, ऐसा कैसे सिद्ध होगा ? क्योंकि इस विषय में भी शक्ति और शक्तिमान् जैसे प्रश्न होंगे अर्थात् ईश्वर यदि अदृष्ट रूप सहकारी कारण से रहित होकर कार्य करता है तो संपूर्ण कार्य एक समय में उत्पन्न हो जाना चाहिये ? क्योंकि कार्यों के करने में उसे अन्य सहकारी कारणों की जरूरत तो है नहीं जिससे कि कार्य रुक जाय । इस दोष से बचने के लिए यदि अदृष्ट रूप सहकारी कारण युक्त होकर वह महेश्वर कार्यों का उत्पादक होता है, ऐसा माना जाये तो वे सहकारी कारण भी अन्य सहकारी कारणों से सहित होकर ही महेश्वर द्वारा किये जावेंगे। इस तरह ऊपर ऊपर सहकारी की अपेक्षा बढ़ती जाने से अनवस्था प्रायेगी। पूर्व पूर्व अदृष्टरूप सहकारी कारणों से युक्त होकर आत्मा और महेश्वर उत्तर उत्तर अदृष्ट के सम्पूर्ण कार्य विशेष को करते हैं, ऐसा माने तो संपूर्ण पदार्थ भी पूर्व पूर्व शक्ति से समन्वित होकर ही आगे आगे की शक्ति को उत्पन्न करते हैं, ऐसा भी मान लेना चाहिये, व्यर्थ के दुराग्रह से क्या लाभ ? आपने जो शंका करी थी कि शक्तिमान से शक्ति भिन्न है कि अभिन्न है । इत्यादि सो ऐसी शंका भी प्रयुक्त है, क्योंकि हम स्याद्वादियों ने शक्ति को शक्तिमान से कथंचित भिन्न भी माना है। शक्तिमान से शक्ति भिन्न है वह किस अपेक्षा से है, यही अब प्रगट करते हैं-शक्तिमान् से शक्ति भिन्न है, क्योंकि शक्तिमान के प्रत्यक्ष होनेपर भी शक्तिका प्रत्यक्ष नहीं होता, फिर वह शक्ति कार्य की अन्यथानुपपत्ति से ही जानी जाती है। [ यदि शक्ति नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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