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शक्तिस्वरूपविचारः
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शक्तिस्त्वनित्यैव सादिपर्यवसानत्वात्पर्यायाणाम् । न च शक्तनित्यत्वे सहकारिकारणानपेक्षयवार्थस्य कार्यकारित्वानुषङ्गः; द्रव्यशक्त: केवलाया: कार्यकारित्वानभ्युपगमात् । पर्यायशक्तिसमन्विता हि द्रव्यशक्तिः कार्यकारिणी, विशिष्टपर्यायपरिणतस्यैव द्रव्यस्य कार्यकारित्वप्रतीतेः । तत्परिणतिश्चास्य सहकारिकारणापेक्षया इति पर्यायशक्त स्तदैव भावान्न सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसङ्गः सहकारिकारणापेक्षावैयर्थ्य वा । कथमन्यथा अदृष्ट श्वरादेः केवलस्यैव सुखादिकार्योत्पादनसामर्थ्य सर्वदा कार्योत्पादकत्वं सहकारिकारणापेक्षावैयर्थ्य वा न स्यात् ?
है, क्योंकि हम जैन अकेली द्रव्य शक्ति कार्य को करती है ऐसा मानते ही नहीं हैं। देखिये ! पर्यायशक्ति युक्त जो द्रव्य शक्ति होती है, वही कार्य करती है। प्रतीति में भी आता है कि विशिष्ट पर्याय से युक्त जो द्रव्य है, वही कार्यको करता है, अन्य नहीं । द्रव्य की विशिष्ट पर्यायरूप से जो परिणति होती है, वह सहकारी की अपेक्षा लेकर ही होती है, अतः जब पर्याय शक्ति होती है, तब कार्य होता है, अन्यथा नहीं । इसलिये हमेशा कार्य उत्पन्न होने का प्रसंग नहीं पाता और सहकारी कारणों की अपेक्षा भी व्यर्थ नहीं जाती, क्योंकि पर्याय शक्ति के लिये सहकारी की प्रावश्यकता है। यदि पर्यायशक्ति की आवश्यकता नहीं माने तो अदृष्ट, ईश्वरादि अकेले ही सुख, अंकुर आदि कार्यों को उत्पन्न करने में समर्थ हो जाने से सर्वदा कार्य होने का प्रसंग आता है, तथा उन ईश्वरादि की सहकारी कारणादि की अपेक्षा करना भी सिद्ध नहीं होता अत: पर्यायशक्ति युक्त पदार्थ है, ऐसा सिद्ध हो गया। तथा-पआपने पूछा था कि शक्त [समर्थ] शक्तिमान से शक्ति उत्पन्न होती है, या अशक्त शक्तिमान से शक्ति उत्पन्न होती है, इत्यादि सो उन प्रश्नों का उत्तर तो यह है कि शक्त-शक्तिमान से ही शक्ति पैदा होती है, तथा ऐसा मानने पर यद्यपि अनवस्था पाती है फिर भी ऐसी अनवस्था दोष के लिये नहीं होती क्योंकि यह शक्तिकी परंपरा तो बीजांकुर के समान अनादि प्रवाहरूप मानी गई है। इसी का विवेचन करते हैं । वर्तमान की शक्ति अपने पहले शक्ति युक्त पदार्थ से आविर्भूत होती है, और पदार्थ की शक्ति भी पहले के शक्ति युक्त पदार्थ से आविर्भूत होती है [ प्रगट होती है ] जैसे पूर्व पूर्व अवस्था युक्त पदार्थों की उत्तरोत्तर अवस्था उत्पन्न होती रहती है । नैयायिक यदि शक्तिका प्रादुर्भाव शक्तिमान से होता है, ऐसा मानने में अनवस्थादोषका उद्भावन करते हैं तो उनके यहां पर प्रदृष्टका [ भाग्य का ] आविर्भाव होना कैसे सुघटित होगा ? क्योंकि उस अदृष्ट के विषय में भी प्रश्न होंगे कि आत्मा के द्वारा अदृष्ट जो
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