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________________ ५३२ प्रमेय कमलमार्तण्डे तत्सन्निधाने कार्यस्यानुत्पत्तिरिति । अस्तु नामैतत् ; तथापि-प्रतिबन्धकोत्तम्भकमरिणमन्त्रयोरभावेऽग्निः स्वकार्य करोति, न वा ? न तावदुत्तरः पक्षः; प्रत्यक्षविरोधात् । प्रथमपक्षे तु कस्याभाव: अग्नेः सहकारी-सयोरन्यतरस्य, उभयस्य वा ? न तावदुभयस्य; अन्यतराभावे कार्यानुत्पत्तिप्रसङ्गात् । अन्यतरस्य चेतिक प्रतिबन्धकस्य, उत्तम्भकस्य वा ? प्रतिबन्धकस्य चेत् ; स एवोत्तम्भकमण्यादिसन्निधाने कार्यानुत्पादप्रसङ्गः तदा तस्याभावाप्रसिद्धः । उत्तम्भकस्य चेत्; अत्राप्ययमेव दोषः । न चाभावस्य प्रथम विकल्प–प्रतिबंध और उत्तंभक के अभाव में अग्नि अपना कार्य करती है ऐसा कहो तो हम पूछते हैं कि इनमें से किसका अभाव अग्निका सहकारी बना उन दोनों में से किसी एक का या दोनोंका ? यदि दोनोंका अभाव अग्निका सहकारी है ऐसा कहो तो ठीक नहीं, क्योंकि दोनों के अभाव जब नहीं है केवल एक का हो अभाव है तब अग्नि का कार्य रुक जाने का प्रसंग प्राप्त होगा, किन्तु ऐसा होता नहीं । यदि दोनों अभावों में से कोई एक प्रभाव अग्निका सहकारी है ऐसा पक्ष ग्रहण किया जाय तो प्रश्न होगा कि दोनों में से किसका प्रभाव कारण है, प्रतिबंधक का अभाव कि उत्तंभक का अभाव ? प्रतिबंधकका अभाव अग्निका सहकारी है ऐसा माने तो वही पहले का दोष आयेगा कि उत्तंभक मणि आदि के सद्भाव में अग्नि कार्य उत्पन्न नहीं होगा ? क्योंकि उस समय प्रतिबंधक के अभाव की प्रसिद्धि है । उत्तंभक का अभाव अग्निका सहकारी है ऐसा कहो तो गलत होगा, फिर तो उत्तंभक की मौजूदगी में जो अग्नि कार्य दिखायी देता है वह नहीं दिखायी देगा। आपके यहां प्रभाव कार्यका सहकारी बन भी नहीं सकता, क्योंकि वह सर्वथा अभावरूप है, यदि कार्यकारी है तो अवश्य ही वह भावरूप हो जावेगा, भावका अर्थात् पदार्थ का लक्षण तो यही है कि अर्थक्रिया को करना, कार्य को करना और कोई भाव का लक्षण नहीं होता है। भावार्थ-नैयायिक अतीन्द्रिय शक्ति को नहीं मानते हैं, आचार्य उनको समझा रहे हैं कि प्रत्येकपदार्थ में जो कार्य की क्षमता रहती है वह दृष्टिगोचर नहीं होती है, वस्तुका स्वरूप मात्र शक्ति नहीं है और वह स्वरूप भी पूरा प्रत्यक्ष गोचर नहीं हुआ करता, वस्तुका स्वरूप ही कार्य करता हो तो अग्नि जल रही है उस वक्त किसी मांत्रिक ने अग्नि स्तंभक मंत्र से अग्नि की दाह शक्तिको रोक दिया तब वह अग्नि पहले के समान प्रज्वलित [ धधकती ] हुई भी जलाती नहीं सो वहां अग्निका कुछ बिगड़ता नहीं, तो कौन सी बात है जो जलाती नहीं। अतः सिद्ध होता है कि अग्निके बाहरी स्वरूप से पृथक् ही एक शक्ति है । उत्तंभक मरिण मन्त्र और प्रतिबंधक मणि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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