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________________ शक्तिस्वरूपविचार: ५३१ ननु चानेन नाग्नेः सहकारिणो वा स्वरूपं प्रतिहन्यते किन्तु स्वभाव एव निवर्त्यते, अतः स्फोटादिकार्यस्यानुत्पत्तिः प्रतिबन्धकमरिणमन्त्राद्यभावस्यापि तदुत्पत्तौ सहकारित्वात् तदभावे तदनुत्वत्तेः; इत्यप्यसमीक्षिताभिधानम्; उत्तम्भकमणिसन्निधाने कार्यस्यानुत्पत्तिप्रसङ्गात् । न खलु तदा प्रतिबन्धक मण्याद्यभावोस्ति प्रत्यक्षविरोधात् । ननु यथाग्निः प्रतिबन्धकमण्याद्यभावसहकारी स्फोटादिकार्यं करोति, एवं प्रतिबन्धकमण्यादिः उत्तम्भकमण्याद्यभावसहकारी तत्प्रतिबन्धं करोति, अतो न का नाश किया है । इसलिये ऐसा ही मानना चाहिये कि प्रतिबंधक मणि मंत्रादि के द्वारा अग्नि की शक्ति ही नष्ट की गयी है । नैयायिक - प्रतिबंधक मरिण आदि के द्वारा न तो अग्नि का स्वरूप ही नष्ट किया जाता है और न सहकारी स्वरूप का नाश किया जाता है, किन्तु अग्निका जो स्वभाव है वही उस समय हटा दिया जाता है, इसी कारण से उस अग्नि से स्फोट आदि कार्य नहीं हो पाते तथा प्रतिबंधक मणिमंत्र आदि का जो प्रभाव है वह भी स्फोट आदि के उत्पत्ति में सहकारी बन जाता है क्योंकि प्रतिबंधक के प्रभाव हुए बिना स्फोटादि कार्य उत्पन्न नहीं हो पाते हैं ? जैन - यह कथन बिना सोचे किया है क्योंकि प्रतिबंधक के प्रभाव से सहकृत हुई अग्नि अपना स्फोटादि कार्य करती है ऐसा यदि माना जावे तो उत्तंभक मरिण के सन्निधान में अग्नि के कार्य रूप जो स्फोट आदि होते हैं वे नहीं हो सकेंगे । क्योंकि उस समय प्रतिबंधक मरिण आदिका प्रभाव नहीं है, यदि माने तो प्रत्यक्ष विरोध आता है । शंका - जिस प्रकार अग्नि प्रतिबंधक मरिण आदि के प्रभाव से सहकृत होकर अपना स्फोट आदि कार्य को करती है, उसी प्रकार प्रतिबंधक मणि आदि भी उत्तंभक मरिण के प्रभाव से सहकृत होकर हो स्फोट आदि कार्य के प्रतिबंधक होते हैं, [ स्फोटादि को नहीं होने देना रूप कार्यको करते हैं ] अतः उस उत्तंभक मणिके सन्निधान में कार्य की अनुत्पत्ति नहीं रहती [ अर्थात् कार्य की उत्पत्ति होती है ] । समाधान - श्रच्छा जैसा तुम कहते हो वैसा ही सही किन्तु यह तो कहो कि प्रतिबंधक और उत्तभक मणि मंत्रादि के अभाव में अग्नि अपना कार्य करती है कि नहीं करती ? यदि उत्तर विकल्प कहा कि नहीं करती है तो ऐसे कहने में प्रत्यक्ष से विरोध आता है अर्थात् कोई मरिण मंत्र नहीं है तो भी अग्नि अपना कार्य करती ही है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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