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प्रमेयकमलमार्तण्डे
कत्वात्कार्याणां कथं तदन्यथानुपपत्तिर्यतोऽनुमानात्तत्सिद्धिः स्यात् ; इत्यप्यसमीचीनम् ; यतो नास्माभिः सामन्याः कार्यकारित्वं प्रतिषिध्यते, किन्तु प्रतिनियतायास्तस्याः प्रतिनियतकार्यकारित्वम् अतीन्द्रियशक्तिसद्भावमन्तरेणासम्भाव्यमित्यसावप्यभ्युपगन्तव्या । कथमन्यथा प्रतिबन्धकमणिमन्त्रादिसन्निधानेप्यग्निः स्फोटादिकार्य न कुर्यात् सामग्रयास्तत्रापि सद्भावात् ? तेन ह्यग्नेः स्वरूपं प्रति. हन्यते, सहकारिणो वा ? न तावदाद्य: पक्षः क्षेमङ्करः; अग्निस्वरूपस्य तदवस्थतयाध्यक्षेणैवाध्यवसायात् । नापि द्वितीयः; सहकारिस्वरूपस्याप्यंगुल्यग्निसंयोगलक्षणस्याविकलतयोपलक्षणात् । अतः शक्त रेवानेन प्रतिबन्धोभ्युपगन्तव्यः ।
अर्थात् यदि शक्ति न होती तो उसके द्वारा जो कार्य होते हैं वे नहीं होते, इस अनुमान प्रमाण से शक्ति का ग्रहण होता है ।
शंका-कार्यों की उत्पत्ति तो सामग्री से होती है, फिर वह अन्यथानुपपत्ति कौनसी है कि जिससे शक्ति की अनुमान के द्वारा सिद्धि की जा सके ? मतलब यह है कि कार्य तो सामग्री से होता है शक्ति से नहीं ?
समाधान-यह कथन प्रयुक्त है हम जैन सामग्री से कार्य होने का निषेध नहीं करते हैं किन्तु प्रतिनियत निश्चित किसी एक सामग्री से प्रतिनियत निश्चित कोई एक कार्य होता हुआ देखकर अतीन्द्रिय शक्ति का सद्भाव हुए बिना ऐसा हो नहीं सकता, इस प्रकार अतीन्द्रिय शक्ति की सिद्धि करते हैं । सभी को ऐसा ही मानना चाहिये । यदि ऐसा न माना जाय तो बताइये कि प्रतिबंधक मरिण, मंत्र आदि के सन्निधान होने पर अग्नि अपने स्फोट आदि कार्य को क्यों नहीं करती ? सामग्री तो सारी की सारी मौजूद है ? प्रतिबंधक मरिण आदि के द्वारा अग्नि का स्वरूप नष्ट किया जाता है अथवा सहकारी कारणों का विनाश किया जाता है ? अग्नि का स्वरूप नष्ट किया जाता है, ऐसा कहना तो कल्याणकारी नहीं होगा, क्योंकि अग्नि का स्वरूप तो प्रत्यक्ष से वैसा का वैसा दिखायी ही दे रहा है । दूसरा पक्ष-अग्नि के सहकारी कारणों का प्रतिबंधक मणि आदि के द्वारा नाश किया जाता है ऐसा कहना भी गलत है, सहकारी अर्थात् अग्नि को प्रदीप्त करनेवाला अंगुली और अग्नि का संयोग अर्थात् दियासलाई का अंगुली से पकड़कर जलाना अथवा अन्य किसी पंखा आदि साधन से ईन्धन को प्रज्वलित करना आदि सभी सहकारी कारण वहां जलती हुई अग्नि के समय दिखायी दे रहे हैं तब कैसे कह सकते हैं कि प्रतिबंधक मणि आदि ने सहकारी
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