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शक्तिस्वरूपविचार:
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भेदः, अभेदो वा ? उभयत्रानन्तरोक्तो भयदोषानुषङ्गोऽनवस्था च । तद्रहितेनानेन शक्त रुपकारे तु प्राच्यशक्तिकल्पनाप्यपाथिका तद्वयतिरेकेणैव कार्यस्याप्युत्पत्तेरुपकारवत् शक्तिशक्तिमतोर्भेदाभेदपरिकल्पनायां विरोधादिदोषानुषङ्गः ।
तथा, असौ किमेका, अनेका वा ? तत्रैकत्वे शक्तयुगपदनेककार्योत्पत्तिर्न स्यात् । अनेकत्वेपि अनेकशक्तिमात्मन्यर्थोनेक शक्तिभिबिभृयादित्यनवस्थाप्रसङ्ग इति ।
प्रत्र प्रतिविधीयते । किं ग्राहकप्रमाणाभावाच्छक्त रभावः, अतीन्द्रियत्वाद्वा ? तत्राद्यः पक्षोऽयुक्तः; कार्योत्पत्त्यन्यथानुपपत्तिजनितानुमानस्यैव तद्ग्राहकत्वात् । ननु सामग्रयधीनोत्पत्ति
उत्पन्न हो जाता है, मतलब-शक्ति रहित जो शक्तिमान अग्नि आदि पदार्थ हैं उनसे जैसे दाहादिरूप उपकारक कार्य होते हैं वैसे ही शक्तिमान भी पहली शक्ति से रहित हुआ ही शक्ति का उपकार रूप कार्य कर लेगा। इस प्रकार शक्ति और शक्तिमान में भेद मानो चाहे अभेद मानो, दोनों पक्ष में विरोध अनवस्था आदि दोष पाते हैं । उस शक्ति के विषय में और भी अनेक प्रश्न उठते हैं, जैसे कि वह शक्ति एक है कि अनेक यदि एक है तो उससे एक साथ जो अनेक कार्य उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं, वे नहीं होना चाहिये, परन्तु एक ही दीपक एक ही समय में अंधकार विनाश पदार्थ प्रकाश वर्तिकादाह और तेल शोषण आदि अनेक कार्य होते हुए देखे जाते हैं । यदि शक्तियां अनेक माने तो भी ठीक नहीं क्योंकि अनेक शक्तियों को जब शक्तिमान् अपने में धारण करेगा तब वहां पर भी यही प्रश्न होगा कि वह शक्तिमान् पदार्थ अनेक शक्तियों को एक शक्ति द्वारा धारण करता है या अनेक शक्ति द्वारा धारण करता है ? यदि वह अनेक शक्तियों द्वारा उन्हें धारण करता है तो अनवस्था अाती है अर्थात् शक्तिमान् पदार्थ अनेक शक्तियों को एक ही शक्ति से अपने में धारता है तो ऐसी स्थिति में वे सब शक्तियां एक हो जायेगी, इत्यादि रूप से अनवस्था होगी इसलिये हम नैयायिक अतीन्द्रिय शक्ति को नहीं मानते हैं । अतः वस्तु का जो दिखायी देने वाला स्वरूप है वही सब कुछ है ।
जैन-पाप नैयायिक शक्ति का अभाव मानते हो सो उसका ग्राहक प्रमाण नहीं है इसलिये या वह अतीन्द्रिय है इसलिये ? ग्राहक प्रमाणका अभाव होनेसे शक्ति को नहीं मानते ऐसा प्रथमपक्ष कहो तो ठीक नहीं, क्योंकि उसका ग्राहक प्रमाण मौजूद है जो इस प्रकार से है- अतीन्द्रिय शक्ति है क्योंकि उसके कार्य की अन्यथानुपपत्ति है
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