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________________ ५२८ प्रमेयकमलमार्तण्डे वा स्यात् ? भिन्ना चेत्; 'तस्येयम्' इति व्यपदेशाभावः अनुपकारात् । उपकारे वा तया तस्योपकारः, तेन वाऽस्याः ? प्रथमपक्षे शक्तिमतः शक्त्योपकारोऽर्थान्तरभूतः, अनर्थान्तरभूतो वा विधीयते ? अर्थान्तरभूतने दनवस्था, तस्यापि व्यपदेशार्थमुपकारान्तरपरिकल्पनया शक्त्यन्तरपरिकल्पनात् । अनर्थान्तरभूतोपकारकरणे तु स एव कृतः स्यात् । तथा च न शक्तिमानसौ तत्कार्यत्वाप्रसिदतत्कार्यत्वात् । शक्तिमतापि-शक्त्यन्तरान्वितेन, तद्रहितेन वा शक्त रुपकारः क्रियते ? प्राद्यपक्षे शक्त्यन्तराणां ततो मान भिन्न है ऐसा द्वितीय विकल्प माने तो "यह शक्तिमान की शक्ति है" ऐसा संबंध वचन बनेगा नहीं, क्योंकि भिन्न में संबंधरूप उपकार नहीं होता, यदि उपकार होना मान भी लेवें तो कौन किसका उपकार करता है, क्या शक्ति से शक्तिमान का उपकार होता है या शक्तिमान से शक्ति का उपकार होता है ? यदि शक्ति के द्वारा शक्तिमान का उपकार होता है इस तरह का प्रथम पक्ष माना जाय तो बताइये वह उपकार शक्तिमान से अर्थांतरभूत किया जाता है कि अनर्थान्तरभूत किया जाता है ? अर्थांतर भूत किया जाता है ऐसा मानो तो अनवस्था होती है, क्योंकि शक्ति ने शक्तिमान का यह उपकार किया है ऐसा संबंध सिद्ध करने के लिये-अन्य अन्य उपकार की कल्पना तथा अन्य अन्य शक्ति की व्यवस्था करनी होगी। यदि शक्ति के द्वारा किया गया शक्तिमान का उपकार उससे अनर्थान्तरभूत है ऐसा द्वितीय पक्ष अंगीकार किया जाय तो शक्तिने शक्तिमान (पदार्थ) को किया ऐसा अर्थ होगा, फिर उस पदार्थको शक्तिमान नहीं कह सकते, क्योंकि वह कार्य करने में समर्थ न रहकर स्वयं ही शक्तिका कार्य कहलाने लगा है । शक्तिमान [पदार्थ] द्वारा शक्ति का उपकार किया जाता है ऐसा माने तो प्रश्न होता है कि शक्तिमान अन्यशक्ति से युक्त होकर शक्तिका उपकार करता है या अन्य शक्ति से रहित होकर उसका उपकार करता है, प्रथम पक्ष-अन्य शक्ति से युक्त होकर शक्तिमान शक्ति का उपकार करता है तो वह शक्त्यन्तर भी शक्तिमान से भिन्न है या अभिन्न है यह बताना होगा, दोनों ही पक्षों में वे पहले कहे हए सब दोष आते हैं अर्थात् शक्तिमान अन्य शक्ति से युक्त होकर शक्ति का उपकार करता है, वह उपकार भिन्न है सो संबंध नहीं बनता और अभिन्न है तो एक ही रहेगा इत्यादि दोष आते हैं तथा अनवस्था दोष भी स्पष्ट दिखायी देता है । दूसरा विकल्पशक्तिमान शक्ति का उपकार करने में प्रवृत्त होता है तब अन्य शक्ति से रहित होकर प्रवृत्त होता है ऐसा माने तो पहले की शक्ति की कल्पना व्यर्थ हो जाती है, क्योंकि शक्ति के बिना ही कार्य की उत्पत्ति हो जाती है जैसा कि बिना शक्ति के उपकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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