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प्रतिज्ञाश्लोकः
अनिर्दिष्ट फलं सर्वं न प्रेक्षापूर्वकारिभिः । शास्त्रमाद्रियते तेन वाच्यमग्ने प्रयोजनम् ।। ३ ।।
शास्त्रस्य तु फले ज्ञाते तत्प्राप्त्याशावशीकृताः । प्रेक्षावन्तः प्रवर्तन्ते तेन वाच्यं प्रयोजनम् ।। ४ ।।
यावत् प्रयोजनेनास्यसम्बन्धो नाभिधीयते । असम्बद्धप्रलापित्वाद्भवेत्तावदसङ्गतिः ।।५।।
[ मीमांसाश्लो० प्रतिज्ञासू० श्लो० २०] तस्माद् व्याख्याङ्गमिच्छद्भिः सहेतु: सप्रयोजनः । शास्त्रावतारसम्बन्धोवाच्यो नान्योऽस्ति निष्फलः ॥६॥इति ।
[ मीमांसाश्लो० प्रतिज्ञासू० श्लो० २५ ] तत्रास्य प्रकरणस्य प्रमाणतदाभासयोर्लक्षणमभिधेयम् । अनेन च सहास्य प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावलक्षण: सम्बन्धः । शक्यानुष्ठानेष्ट प्रयोजनं तु साक्षात्तल्लक्षणव्युत्पत्तिरेव-'इति वक्ष्ये तयोर्लक्ष्म'
जिसका फल नहीं बताया है ऐसे सब प्रकार के ही शास्त्रों का बुद्धिमान् आदर नहीं करते हैं, इसलिए शुरु में ही प्रयोजन बताना चाहिए ॥३।।
शास्त्र का प्रयोजन जब मालूम पड़ता है तब उस फल की प्राप्ति की प्राशा से युक्त हुए विद्वद्गण उस शास्त्र को पढ़ने-ग्रहण करने में प्रवृत्त होते हैं, अतः प्रयोजन अवश्य कहना होगा ।।४।।
जब तक इस वाक्य का यह वाच्य पदार्थ है और यह फल है ऐसा संबंध नहीं जोड़ा जाता है तब तक वह वाक्य असंबद्ध प्रलाप स्वरूप होने से अयोग्य ही कहलाता है ॥५॥
इसलिए जो ग्रन्थकर्ता शास्त्रव्याख्यान करना चाहते हैं उनको उस शास्त्र का कारण, प्रयोजन – फल तथा शक्यानुष्ठानादि सभी कहने होंगे, अन्यथा वह ग्रन्थ निष्फल हो जावेगा ॥६॥
इन संबंधादिके विषयों में से इस प्रकरण अर्थात् परीक्षामुख ग्रन्थ का प्रमाण और प्रमाणाभास का लक्षण कहना यही अभिधेय है, इसका इसके साथ प्रतिपाद्य
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