________________
प्रमेयकमलमार्तण्डे
वा मातृविवाहोपदेशवत् ; अशक्यानुष्ठानस्य वा सर्वज्वरहरतक्षकचूडारत्नालङ्कारोपदेशवत् तैरनादरणीयत्वात् । तदुक्तम्
सिद्धार्थ सिद्धसम्बन्धं श्रोता श्रोतु प्रवर्तते । शास्त्रादौ तेन वक्तव्यः सम्बन्धः सप्रयोजनः ।।१।।
[ मीमांसाश्लो० प्रतिज्ञासू० श्लो• १७ ] सर्वस्यैव हि शास्त्रस्य कर्मणो वापि कस्यचित् । यावत्प्रयोजनं नोक्त तावत्तत्केन गृह्यताम् ।। २॥
[ मीमांसाश्लो० प्रतिज्ञासू० श्लो० १२ ।
वाक्य का आदर नहीं होता है। तथा संबंध युक्त भी अप्रयोजनी भूत वाक्य काकके दांत की परीक्षा करने वाले वचन के समान बेकार-अनादरणीय होते हैं, अनभिमत प्रयोजन को करने वाले वाक्य तो मातृ विवाहोपदेश के समान अयोग्य होते हैं । तथा सर्व प्रकार के बुखार को दूर करने वाला नागफणास्थित मणिके द्वारा रचे हुए अलंकार के वचन समान अशक्यानुष्ठानरूप वचन सज्जनों के पादर योग्य नहीं होते हैं । मतलब यह हुआ कि संबंध रहित वाक्य से कुछ प्रयोजन नहीं निकलता जैसे-दश अनार, छः पूए इत्यादि संबंध युक्त होकर भी यदि वह प्रयोजन रहित हो तो वह भी उपयोगी नहीं है-जैसे-कौवा के कितने दांत हैं इत्यादि कथन कुछ उपयोगी नहीं रहता है । प्रयोजन भी इष्ट हो किन्तु उसका करना शक्य न हो तो वह अशक्यानुष्ठान कहलाता है जैसे - नाग के फणा का मणि सब प्रकार के ज्वरको दूर करने वाला होने से इष्ट तो है किन्तु उसे प्राप्त करना अशक्य है सो इस चार प्रकार के संबंधाभिधेय रहित, अनिष्ट, प्रयोजनरहित तथा अशक्यानुष्ठान स्वरूप जो वाक्य रचना होती है उसका बुद्धिमान लोग आदर नहीं करते हैं, अतः ग्रन्थ इन दोषों से रहित होना चाहिये । अब यहां उन्हीं संबंधादिक के विषय का वर्णन मीमांसक के मीमांसा श्लोकवार्तिक का उद्धरण देकर करते हैं
जिसका अर्थ प्रमाण से सिद्ध है ऐसे संबंधवाले वाक्यों को सुनने के लिये श्रोतागण प्रवृत्त होते हैं, अतः शास्त्र की आदि में ही प्रयोजन सहित संबंध को कहना चाहिये ।। १ ।।
शास्त्र हो चाहे कोई क्रियानुष्ठान हो जब तक उसका प्रयोजन नहीं बताया है तब तक उसे ग्रहण कौन करेगा ।।२।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org