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________________ प्रमेयकमलमार्तण्डे इत्यनेनाऽभिधीयते । 'प्रमाणादर्थसंसिद्धिः' इत्यादिकं तु परम्परयेति समुदायार्थः। अथेदानी व्युत्पत्तिद्वारेणाऽवयवार्थोऽभिधीयते । अत्र प्रमाणशब्द: कर्तृ करणभावसाधनः-द्रव्यपर्याययोर्भेदाऽभेदात्मकत्वात् स्वातन्त्र्यसाधकतमत्वादिविवक्षापेक्षयातद्भावाऽविरोधात् । तत्र क्षयोपशम विशेषवशात्-‘स्वपरप्रमेयस्वरूपं प्रमिमीते यथावज्जानाति' इति प्रमाणमात्मा, स्वपरग्रहणपरिण तस्यापरतन्त्रस्याऽऽत्मन एव हि कर्तृ साधनप्रमाणशब्देनाभिधानं,स्वातन्त्र्येण विवक्षितत्वात्-स्वपरप्रकाशात्मकस्य प्रदीपादेः प्रकाशाभिधानवत् । साधकतमत्वादिविवक्षायां तु-प्रमीयते येन तत्प्रमाणं प्रमितिमात्रं वा-प्रतिबन्धापाये प्रादुभूतविज्ञानपर्यायस्य प्राधान्येनाश्रयणात् प्रदीपादेः प्रभाभारात्मकप्रकाशवत् । प्रतिपादकभाववाला संबंध है, इसमें शक्यानुष्ठान और इष्ट प्रयोजन तो यही है कि प्रमाण और तदाभास के जानने में निपुणता प्राप्त होना इस बात को “वक्ष्ये" कहूंगा इस पद के द्वारा प्रकट किया है इसका साक्षात् फल अज्ञान की निवृत्ति होना है, प्रमाण से अर्थ की सिद्धि होती है इत्यादि पदों से तो इस ग्रन्थका परंपरा फल दिखाया गया है, इस प्रकार प्रथम श्लोक का समुदाय अर्थ हुअा, अब एक एक पदों का अवयवरूप से उनकी व्याकरण से व्युत्पत्ति दिखलाते हैं, इस श्लोक में जो प्रमाणपद है वह कर्तृ साधन, करणसाधन, भावसाधन इन तीन प्रकारों से निष्पन्न है, क्योंकि द्रव्य और पर्याय दोनों ही आपस में कथंचित् भेदा-भेदात्मक होते हैं। स्वातन्त्र्य विवक्षा, साधकतमविवक्षा और भावविवक्षा होने से तीनों प्रकार से प्रमाण शब्द बनने में कोई विरोध नहीं आता है। कर्तृ साधन स्वातन्त्र्य विवक्षा से प्रमारण शब्द की निष्पत्ति कहते हैं- क्षयोपशम के विशेष होने से अपने को और पर रूप प्रमेय को जैसा का तैसा जो जानता है वह प्रमाण है, "प्रमिमीते अर्थात् जानाति इति प्रमाणं" कर्तृ साधन है, मायने आत्मा अर्थात् अपने और पर के ग्रहण करने में परिणत हुआ जो जीव है वही प्रमाण है, यह कर्तृ साधन प्रमाण शब्द के द्वारा कहा जाता है। क्योंकि स्वातन्त्र्य विवक्षा है, जैसे अपने और पर को प्रकाशित करने वाला दीपक स्वपर को प्रकाशित करता है ऐसा कहा जाता है । साधकतमादि विवक्षा होने पर "प्रमीयते अनेन इति प्रमाणं करण साधनं" अथवा प्रमितिमात्रं वा प्रमाणं भावसाधन प्रमाण पद हो जाता है, इन विवक्षानों में जाना जाय जिसके द्वारा वह प्रमाण है अथवा जानना मात्र प्रमाण है ऐसा प्रमाण शब्द का अर्थ होता है, इस कथन में मुख्यता से प्रतिबंधकज्ञानावरणादि कर्मों का अपाय अथवा क्षयोपशम होने से उत्पन्न हुई जो ज्ञानपर्याय है उसका आश्रय है-जैसे दीप की कांति युक्त जो शिखा-लौ है वही प्रदीप है। इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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