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________________ ५२६ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे सन्तोपि तन्तवो न कार्यमारभन्ते अन्त्यतन्तुसंयोगं विनेति सैव शक्तिस्तेषाम् । ननु कथमर्थान्तरमर्थान्तरस्य शक्तिः ? अनर्थान्तरत्वेपि समानमेतत् - ' स एव तस्यैव न शक्तिः' इति । अथ यदि पूर्वेषां सहकार्येव शक्तिस्तहि तस्याप्यशक्तस्याकारणत्वादन्या शक्तिर्वाच्येत्यनवस्था; तदयुक्तम्; चरमस्य हि सहकारिण: पूर्व सहकारिण एव शक्तिः इतरेतराभिसम्बन्धेन कार्यकरणात् । स एव समग्राणां भावः सामग्रीति भावप्रत्ययेनोच्यते, तेन सता समग्रव्यपदेशात् । शंका - अर्थान्तर की शक्ति उससे प्रर्थान्तर रूप कैसे हो सकती है ? अर्थात् पदार्थ की शक्ति पदार्थ से भिन्न है ऐसा कैसे सिद्ध हो सकता है ? क्योंकि शक्ति को प्रर्थान्तर मानने पर यह " पदार्थ की शक्ति" है ऐसा व्यवहार विलुप्त हो जावेगा । समाधान - तो शक्ति को पदार्थ से अनर्थान्तर - प्रभिन्न मानने में भी यही प्रश्न आता है, अर्थात् पदार्थ से शक्ति प्रभिन्न है तो इस पक्ष में यह पदार्थ की शक्ति है ऐसा व्यवहार नहीं हो सकता, क्योंकि वह तो पदार्थ रूप ही हो जायगी ? शंका- तन्तु आदि कारणों का जो सहकारी पना है वही उनकी शक्ति है ऐसा माना जाय तो पुनः प्रश्न होते हैं कि वह सहकारी भी शक्त है या अशक्त है ? यदि वह अशक्त है तो कार्य का कारण नहीं हो सकता अतः उस अशक्त को शक्त बनने के लिये अन्य शक्ति चाहिये, इस प्रकार मानने पर अनवस्था आती है । अनवस्था दोष का विवेचन टिप्पणीकार ने इस प्रकार किया है- अतीक्रिय शक्ति के द्वारा शक्तिमान् का उपकार किया जाता है ऐसा मानने पर शक्ति द्वारा किया गया वह उपकार शक्तिमान से भिन्न होता है तो अनवस्था होगी ? क्योंकि उपकार भी शक्ति मान से यदि भिन्न है तो भिन्न होने के कारण यह शक्तिमान का उपकार है ऐसा संबंध सिद्ध नहीं होता है, यदि क्रियमाण वह भिन्न उपकार शक्तिमान के साथ अपना संबंध सिद्ध करने के लिये उपकारान्तर को करता है तो पुनः यह प्रश्न होता है कि शक्त होकर या अशक्त होकर वह उपकार उपकारान्तर को करता है ? अशक्त होकर उपकारान्तर का करना शक्य नहीं । यदि शक्य होकर वह उपकार शक्तिमान के साथ स्वसंबंध की सिद्धि के लिये उपकारान्तर को करता है, ऐसा मानो तो जिस शक्ति से स्वयं उपकार शक्त हुआ है वह शक्ति भी उस उपकार से भिन्न है कि अभिन्न है, यदि भिन्न है तो "उपकार की यह शक्ति है" ऐसा कहना शक्य नहीं, क्योंकि वह उससे भिन्न है । यदि शक्ति भी उपकार के साथ अपना संबंध स्थापित करने के लिये उप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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