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________________ शक्तिस्वरूपविचारः ___ ननु वह्निस्वरूपस्याध्यक्षत एव प्रसिद्ध स्तदतिरिक्तातीन्द्रियशक्तिसद्भावे प्रमाणाभावात्कथं तत्रार्थापत्त : प्रामाण्यम् ? निजा हि शक्तिः पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादिकमेव तदभिसम्बन्धादेव तेषां कार्यकारित्वात् । अन्त्या तु चरमसहकारिरूपा, तत्सद्भावे कार्य करणादभावे चाकरणात् । तथाहि अर्थापत्ति को जब अनुमान में शामिल कर रहे थे, तब अग्नि की दाहकशक्ति का नाम प्राया था सो अब शक्ति के विषय में चर्चा प्रवर्तित होती है। इसमें नैयायिक शक्ति के निरसन के लिये अपना पक्ष उपस्थित करते हैं नैयायिक-अग्निका स्वरूप प्रत्यक्ष प्रमाण से ही प्रसिद्ध हो रहा है, उस स्वरूप को छोड़कर अन्य कोई न्यारी अतीन्द्रिय शक्ति है ऐसा उसका सदुभाव सिद्ध करने वाला कोई भी प्रमाण नहीं है । अत: मीमांसक उस शक्ति को ग्रहण करने वाली अर्थापत्ति को किस प्रकार प्रमाणभूत मानते हैं ? जब वैसी शक्ति ही नहीं है तब उसको बतलाने वाले अर्थापत्ति में प्रामाण्य कैसे हो सकता है ? अर्थात नहीं हो सकता। वस्तु में जो शक्ति होती है वह उसके निजस्वरूप ही होती है । पृथिवी आदि का पृथिवी आदि रूप होना ही उसकी शक्ति है, उस पृथिवीत्व आदि के संबंध से ही पृथिवी आदि पदार्थ अपने कार्य को करते हैं । कारण में जो अंतिम शक्ति होती है वह चरम सहकारी स्वरूप होती है, उसके होने पर ही कार्य होता है और यह न हो तो कार्य नहीं होता है । इसी बात को उदाहरण देकर वे समझाते हैं-बहुत से तंतु [धागे या डोरे ] रखे हैं किन्तु जब तक अन्त के तुतुओं का संयोग नहीं होता है तब तक वे अपने कार्य को ( वस्त्रको) नहीं करते हैं, बस ! यही उन तन्तुओंकी शक्ति कहलाती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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