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________________ ५.२० प्रमेयक मलमार्त्तण्डे इस प्रकार से है कि अभावप्रमाण से जिन्दे चैत्र का घर में अभाव जानकर पुनः बाहर में उसका सद्भाव जानना । उपमान प्रमाण का पहिले विचार कर आये हैं कि " गृहीत्वा वस्तु सद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिता ज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया " ।। १ ।। पहिले वस्तु का सद्भाव जानकर पुनः प्रतियोगी का स्मरण कर इन्द्रियों की अपेक्षा बिना ही मन में जो "नहीं है" ऐसा ज्ञान होता है वह प्रभावप्रमाण है ।। १ ।। वस्तु दो प्रकारकी हुआ करती है, एक सद्भावरूप और एक प्रभावरूप, इनमें जो प्रभावरूप वस्तु उसको प्रभाव प्रमाण जानता है, इस प्रभावरूप वस्तु को प्रत्यक्षप्रमाण नहीं जान सकता, क्योंकि वह सद्भावरूप वस्तु को ही जानता है । अनुमान भी हेतु न होने से एवं उसका विषय न होनेसे अभाव को नहीं जानता । इसी तरह उपमानादि भी प्रभावको विषय नहीं करते, क्योंकि प्रत्यक्षादि पांचों प्रमाणों का विषय सद्भावरूप पदार्थ है, अभावरूप नहीं । अतः वस्तु के अभावांश को ग्रहण करनेके लिये प्रभावप्रमाण की प्रवृत्ति होती है जैसे कि भावांश को ग्रहण करने के लिए प्रत्यक्षादिप्रमाणों प्रवृत्ति होती है । जैन- - यह मीमांसक का वर्णन उन्मत्त के कथन जैसा है, क्योंकि आपको जिन्हें पृथक्प्रमाण रूप में मानना चाहिये ऐसे प्रत्यभिज्ञान तर्क आदि ज्ञान हैं उन्हें तो नहीं माना और व्यर्थ के प्रमाणों को जिनका कि लक्षण भिन्न रूप से प्रतीति में नहीं श्राता उन्हें स्वतन्त्ररूप से मान रहे हो, देखिये - प्रर्थापत्ति बिलकुल सही तरीके से अनुमानप्रमारण में शामिल हो जाती है, क्योंकि प्रर्थापत्तिको उत्पन्न करनेवाली जो अन्यथानुपपद्यमानत्वरूप वस्तु है वह अनुमान से ही तो जानी जाती है । यदि तुम कहो कि नहीं वह तो अर्थापत्ति से ही जानी जाती है तो ऐसा मानने में अन्योन्याश्रय दोष प्रता है । यदि कहो कि वह दूसरे प्रमाणान्तर से जानी जाती है तो यह दूसरा प्रमाण क्या बला है ? विपक्ष में अनुपलंभ या भूयोदर्शन ? विपक्ष में अनुपलंभ कहो तो वह किसको हुआ, खुदको या सभी को ? खुदको विपक्ष में बाधा न देखने मात्रसे तो साध्य सिद्ध होता नहीं है । और सभी व्यक्तिको विपक्ष में अनुपलंभ है यह बात जानना ही असंभव है । तथा-जैसे अनुमान में अन्यथानुपपत्तिरूप हेतु से साध्यका ज्ञान होता है वैसे ही प्रर्थापत्ति में अन्यथानुपपद्यमानत्व से किसी परोक्षवस्तुका ज्ञान कराया जाता है, अतः वे दोनों एक ही हैं। जैसे- नदीपूर को देखकर असका अविनाभावी कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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