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अर्थापत्त : अनुमानेऽन्तर्भावः
५१३ भिद्यत नाप्यवगतः ; अर्थापत्त्यनुमानयोर्भेदाभावप्रसङ्गादेव, अविनाभावित्वेन प्रतिपन्नादेकस्मात्सम्बन्धिनो द्वितीयप्रतीतेरुभयत्राविशेषात् ।
किञ्च, अस्यान्यथानुपपद्यमानत्वावगमोऽर्थापत्तरेव, प्रमाणान्तराद्वा ? प्रथमपक्षेऽन्योन्याश्रयः; तथाहि-अन्यथानुपपद्यमानत्वेन प्रतिपन्नादर्थादर्थापत्तिप्रवृत्तिः, तत्प्रवृत्तेश्चास्यान्यथानुपपद्यमानत्वप्रतिपत्तिरिति । ततो निराकृतमैतत्
"अविनाभाविता चात्र तदैव परिगृह्यते। न प्रागवगतेत्येवं सत्यप्येषा न कारणम् ।। १॥"
[ मी० श्लो० अर्था० श्लो. ३० ]
है ऐसा कहे तो भी ठीक नहीं, क्योंकि इस तरह से तो अर्थापत्ति और अनुमान में कुछ भी भेद नहीं रहेगा, अविनाभावरूपसे जाने गये किसी एक संबंधी वस्तुसे दूसरे का अवबोध होना दोनों [ अनुमान और अर्थापत्ति ] में समान है, कोई विशेपता नहीं है।
किश्च-अर्थापत्ति का जो विषय वह अन्यथा [बिना वृष्टिके ] अनुपपद्यमान है उसका जो ज्ञान होता है वह अर्थापत्ति से ही होता है, अथवा अन्य प्रमाण से होता है ? यदि अर्थापत्ति से ही होता है ऐसा स्वीकार किया जाय तो अन्योन्याश्रय दोष आता है-अन्यथानुपपद्यमानत्व से जाने हुए पदार्थसे अर्थापत्तिकी प्रवृत्ति होगी और अर्थापत्ति की प्रवृत्ति से इस अर्थापत्ति उत्थापक अर्थ में अन्यथानुपपद्यमानत्व जाना जायगा, इसप्रकार अन्योन्याश्रयदोष पाने के कारण अर्थापत्ति में पृथक् प्रमाणता सिद्ध नहीं होती है । अत: मीमांसक के मीमांसाश्लोकवार्तिक का यह कथन निराकृत हो जाता है कि-"जैन अर्थापत्ति और अनुमान को एक प्रमाणरूप मानते हैं, परन्तु उनका यह मानना ठीक नहीं, क्योंकि अनमान में अपने साध्यके साथ हेतु का अविनाभाव संबंध पहिले से ज्ञात रहता है और अर्थापत्ति में यह अविनाभाव पहिले से ज्ञात नहीं रहता, वह अर्थापत्ति से नदीपूर आदि विषय के जानने पर ही ग्रहण होता है, अर्थापत्ति की उत्पत्ति के पहिले नहीं, इसी कारण से अर्थापत्ति में अविनाभाव भले ही रहता हो किन्तु उसको अर्थापत्ति में निमित्त नहीं माना है ॥ १ ॥ कोई जैन कहे कि संबंधको ग्रहण कर उत्पन्न होने वाली अर्थापत्ति तो अनुमानरूप हो सकती है ? तब उनको समझाते हैं कि जिस कारण से अर्थापत्ति के समय में ही अविनाभावका ग्रहण होता है
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