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श्रर्थापत्तिविचारः
" गवयोपमिताया गोस्तज्ज्ञानग्राह्यशक्तता । अभिधानप्रसिद्धयर्थमर्थापत्त्यावबोधितात् ॥ १ ॥ शब्दे वाचकसामर्थ्यात्तन्नित्यत्वप्रमेयता । अभिधानान्यथाऽसिद्ध रिति वाचकशक्तता ॥ २ ॥ अर्थापत्त्यावगम्यैव तदन्यत्वगतेः पुनः । अर्थापत्त्यन्तरेणैव शब्दनित्यत्वनिश्चयः ॥ ३ ॥ दर्शनस्य परार्थत्वादित्यस्मिन्नभिधास्यते । प्रमाणाभावनिर्णीतचैत्राभावविशेषितात् ॥ ४ ॥ हा बहिर्भावसिद्धिर्या त्विह दर्शिता । तामभावोत्थितामन्यामर्थापत्तिमुदाहरेत् ॥ ५ ॥”
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[ मी० श्लो० अर्था० श्लो० ४-६ ] इत्यादि ।
वाचकशक्ति को सिद्ध करनेके लिए अर्थापत्ति प्रमाण आता है उससे शब्दकी वाचक शक्तिको जानकर उसी वाचक शक्ति द्वारा वाचककी अन्यथानुपपत्तिसे शब्द में नित्यपना सिद्ध किया यह अर्थापत्ति से होनेवाली अर्थापत्ति है । जिस प्रर्थापत्ति से शब्द में वाचक शक्तिको सिद्ध किया है उसी प्रर्थापत्ति से शब्द में नित्यपना भी सिद्ध हो जायगा । ऐसी कोई आशंका करे तो वह ठीक नहीं, क्योंकि अभिधान [ वाचक ] की अन्यथाऽसिद्धि रूप प्रन्यथानुपपत्तिवाले अर्थापत्ति से तो सिर्फ शब्दकी अभिधान शक्ति ही सिद्ध होती है, शब्दकी नित्यताको सिद्ध करनेके लिये तो अभिधान शक्ति [ वाचक शक्ति ] की अन्यथा सिद्धि रूप अन्यथानुपपत्ति आयेगी, अतः शब्दकी वाचक शक्ति तो प्रर्थापत्ति गम्य है और शब्दकी नित्यता अर्थापत्ति जन्य अर्थापत्तिगम्य है ऐसा निश्चय करना चाहिये ।। १ ।। ।। २ ।। इस विषय में " दर्शनस्य परार्थत्वात्" इत्यादि सूत्रकी टीका करते समय आगे कहा जायगा । श्रभावप्रमाण द्वारा चैत्रका घरमें प्रभाव सिद्ध करके उस प्रभाव विशेषसे घर के बाहर चैत्रका सद्भाव सिद्ध करना अभावप्रमाणसे होनेवाली अर्थापत्ति है, इसप्रकार प्रभावप्रमाण जन्य अर्थापत्तिका उदाहरण समझना चाहिये, इस अभावप्रमाण पूर्विका प्रर्थापत्तिके अन्य भी उदाहरण हो सकते हैं उनको यथायोग्य लगा लेना चाहिये । इस तरह मीमांसकाभिमत प्रर्थापत्ति प्रमाण बौद्धकी प्रमाण संख्याका विघटन करता है ।
* प्रर्थापत्तिविचार समाप्त*
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