________________
अभावविचारः
तथाऽभावप्रमाणमपि प्रमाणान्तरम् । तद्धि निषेध्याधारवस्तुग्रहणादिसामग्रीतस्त्रिप्रकारमुत्पन्न सत् क्वचित्प्रदेशादौ घटादीनामभावं विभावयति । उक्त च
"गृहीत्वा वस्तुसद्भावं स्मृत्वा च प्रतियोगिनम् । मानसं नास्तिताज्ञानं जायतेऽक्षानपेक्षया ।।
[मी. श्लो० अभाव० श्लो. २७ ] "प्रत्यक्षादेरनुत्पत्तिः प्रमाणाभाव उच्यते। सात्मनोऽपरिणामो वा विज्ञानं वान्यवस्तुनि ॥"
[मी• इलो० अभाव • श्लो० ११ ]
मीमांसक मत में प्रभाव प्रमाण भी एक पृथक् प्रमाण माना है, अब उसका कथन प्रारंभ होता है- प्रभाव प्रमाण निषेध करने योग्य घट आदि पदार्थ के आधारभूत वस्तुको ग्रहण करने आदि रूप सामग्री से तीन प्रकारका उत्पन्न होता है और वह किसी विशिष्ट स्थान पर घट आदि पदार्थों का अभाव प्रदर्शित करता है । कहा भी हैपहले वस्तुके सद्भावको जानकर एवं प्रतियोगीका ( घटादिका ) स्मरण कर बाह्य इन्द्रियोंके अपेक्षाके विना नास्तिका [नहीं का] जो ज्ञान होता है वह अभाव प्रमाण कहलाता है ।।१।। वह तीन प्रकारका है प्रमाणाभाव, आत्माका ज्ञानरूप अपरिणाम, और तदन्यज्ञान, प्रत्यक्षादि पांच प्रमाणोंका नहीं होना प्रमाणाभाव नामा प्रभाव प्रमाण कहलाता है, आत्माका ज्ञानरूप परिणमन नहीं होना दूसरा प्रभाव प्रमाण है, अन्यवस्तुमें ज्ञानका होना तीसरा प्रभाव प्रमाण है ॥२॥ जिस वस्तुरूपमें पांचों प्रमाण वस्तु की सत्ताका अवबोध कराने में प्रवृत्त नहीं होते उसमें प्रभाव प्रमाण प्रवृत्त होता है, इस तरह यह अभाव प्रमाणकी प्रवृत्ति बतलायी गयी है ॥३॥ वस्तुका अभाव प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रत्यक्षका अभाव रूप विषयके साथ विरोध है, इन्द्रियोंका संबंध तो भावांश वस्तुके साथ होता है न अभावांश के साथ । कहा भी है-"नहीं है" इस प्रकारका नास्तिताका ज्ञान इन्द्रियद्वारा उत्पन्न कराना अशक्य है, क्योंकि इन्द्रियोंकी योग्यता मात्र भावांश के साथ संबद्ध होने की है ।।१।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org