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________________ ५०२ प्रमेय कमलमार्तण्डे द्ध्यर्थः प्रतीयते, ततो वाचकसामथ्यं, ततोपितन्नित्यत्वमिति । अभावपूर्विकाऽर्थापत्तिर्यथा-प्रमाणाभावप्रमितचैत्राभावविशेषिताद्गेहाच्चै त्रबहिर्भावसिद्धिः, 'जीवश्च त्रोऽन्यत्रास्ति गृहे अभावात्' इति। तदुक्तम् "तत्र प्रत्यक्षतो ज्ञाताद्दाहाद्दहनशक्तता। वह्नरनुमितात्सूर्ये यानात्तच्छक्तियोगिता ।। १ ।।" [ मी० श्लो० अर्था० श्लो• ३ ] "पीनो दिवा न भुक्त चेत्येवमादिवचःश्रु तौ। रात्रिभोजन विज्ञानं श्रु तार्थापत्तिरुच्यते ॥ २ ॥" [ मी० श्लो. अर्था० श्लो• ५१ ] ग्राह्यता शक्ति से युक्त गाय है क्योंकि वह उपमेय है, यदि वह ऐसी शक्ति से युक्त नहीं होती तो वह उपमेय भी नहीं होती । अर्थापत्तिपूर्वक होनेवाली अर्थापत्ति इस प्रकार से है जैसे शब्द में पहिले अर्थापत्ति से वाचक सामर्थ्य का निश्चय करना और फिर उससे उसमें नित्यत्व का ज्ञान करना, इसका भाव ऐसा है कि शब्द में वाचक शक्ति के बिना अर्थ की प्रतीति नहीं हो सकती है अत: अर्थप्रतीति से शब्द में पहिले वाचक शक्तिका निश्चय अर्थापत्ति से होता है, और फिर इस अर्थापत्तिप्रबोधित सामर्थ्य से शब्द में नित्यत्व का निश्चय हो जाता है, इस तरह शब्द से अर्थकी प्रतीति उससे वाचक सामर्थ्य और वाचक सामर्थ्य से शब्द में नित्यत्व सिद्ध होता है । अभाव पूर्वक अर्थापत्ति इस प्रकार से है जैसे अभावप्रमाण के द्वारा किसी ने जीते हुए चैत्रका घरमें अभाव जाना अर्थात् जीता हुआ चैत्र घरमें नहीं है ऐसा किसी ने प्रभाव प्रमाण द्वारा जाना फिर अर्थापत्ति से यह सिद्ध किया कि वह बाहर है, इस प्रकार अर्थापत्ति से उसका बाहिर होना सिद्ध हो जाता है कि जीता हुआ चैत्र अन्य स्थान पर है क्योंकि घर में उसका अभाव है। इसी ६ प्रकार की अर्थापत्ति का स्वरूप इन मीमांसक श्लोकवात्तिक के श्लोकों द्वारा कहा गया है, प्रत्यक्ष से जानी हुई अग्निकी उष्णता से उसमें दहनशक्तिका निश्चय करना यह प्रत्यक्षपूर्विका अर्थापत्ति का उदाहरण है । सूर्य में गमनक्रिया को अनुमान से जानकर उसमें गमनशक्तिका निश्चय करना यह अनुमान पूर्विका अर्थापत्ति का उदाहरण है ॥ १ ॥ पुष्ट देवदत्त दिन में भोजन नहीं करता है इत्यादि वचन सुनकर उसमें उसके रात्रिभोजन करने का ज्ञान होना, यह मागम पूर्वक अर्थापत्तिका उदाहरण है ॥ २॥ रोझ से उपमित गाय का सादृश्य ज्ञान द्वारा ग्रहण करने योग्य शक्ति संपन्न होना यह उपमानपूर्वक अर्थापत्तिका उदाहरण है । शब्दमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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