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________________ ५०१ अर्थापत्तिविचारः प्रत्यक्षादिभिः षड्भिः प्रमाणैः प्रसिद्धो योर्थः स येन विना नोपपद्यते तस्यार्थस्य कल्पनमर्था- पत्तिः । तत्र प्रत्यक्षपूर्विकार्थापत्तिर्यथाग्नेः प्रत्यक्षेण प्रतिपन्नाद्दाहादहनशक्तियोगोऽर्थापत्त्या प्रकल्प्यते । न हि शक्तिः प्रत्यक्षेण परिच्छेद्या; अतीन्द्रियत्वात् । नाप्यनुमानेन; अस्य प्रत्यक्षावगतप्रतिबन्धलिङ्गप्रभवत्वेनाभ्युपगमात्, अर्थापत्तिगोचरस्य चार्थस्य कदाचिदप्यध्यक्षागोचरत्वात् । अनुमानपूर्विका त्वर्थापत्तियथा सूर्ये गमनात्तच्छक्तियोगिता । अत्र हि देशाद्देशान्तरप्राप्त्या सूर्ये गमनमनुमीयते ततस्तच्छक्तिसम्बन्ध इति । श्रु तार्थापत्तिर्यथा-'पीनो देवदत्तो दिवा न भुक्त' इति वाक्यश्रवणाद्रात्रिभोजनप्रतिपत्तिः। उपमानार्थापत्तिर्यथा-गवयोपमिताया गोस्तज्ज्ञानग्राह्यताशक्तिः । अर्थापत्ति. पूर्विकाऽर्थापत्तिर्यथा-शब्देऽर्थापत्तिप्रबोधिताद्वाचकसामर्थ्यादभिधानसिध्यर्थ तन्नित्यत्वज्ञानम् । शब्दा अब उस दाह के द्वारा अग्निमें परोक्षार्थ का जलाने की शक्ति का निश्चय अर्थापत्ति कराती है कि अग्निमें दाहक शक्ति है। शक्ति प्रत्यक्ष से इसलिये जानने में नहीं आती है कि वह अतीन्द्रिय है । शक्ति को अनुमान से भी जान नहीं सकते, क्योंकि अनुमान प्रत्यक्ष के द्वारा जिसका साध्यके साथ अविनाभाव संबंध जान लिया गया है ऐसे हेतु से पैदा होता है ऐसा प्रत्यक्षद्वारा जाना हुआ अर्थ यहां नहीं है अर्थात् अर्थापत्ति का विषय कभी भी प्रत्यक्ष के गोचर नहीं होता है । दूसरो अर्थापत्ति अनुमान पूर्वक होती है, जैसे-सूर्य में गमनरूप कार्य देखकर उसकी कारणभूत गमनशक्ति के योग का ज्ञान होना, इसका मतलब ऐसा है कि जैसे देश से देशान्तर प्राप्ति को देखकर किसीने इसी हेतु से-सूर्य में गतिमत्त्व का अनुमान से निश्चय किया कि "सूर्यः गतिमान देशाद्देशान्तर प्राप्त:" सूर्य में गतिमत्त्व है, क्योंकि वह एक देश से दूसरे देश में जाता है जैसे बाण आदि पदार्थ गमन शील होनेसे देशसे देशान्तर में चले जाते हैं। ऐसा पहिले तो अनुमान के द्वारा सूर्यमें गमन सिद्ध किया, फिर देश से देशान्तर प्राप्ति के द्वारा गमनशक्ति का ज्ञान अर्थापत्ति से किया कि सूर्य गमनशक्ति से युक्त है क्योंकि गतिमत्व की अन्यथा अनुपपत्ति है। यह अनुमानपूर्विका अर्थापत्ति का उदाहरण है। श्रुत से-आगम से होनेवाली अर्थापत्ति का उदाहरण जैसे-पुष्ट या मोटा देवदत्त दिन में भोजन नहीं करता है ऐसा वाक्य किसी ने सुना और उससे उसके रात्रिभोजन का निश्चय किया कि-देवदत्त रात्रि में भोजन करता है, क्योंकि दिनमें भोजन तो करता नहीं फिर भी पुष्ट है। इस अर्थापत्ति के बल से देवदत्तका रात्रिमें भोजन करना सिद्ध हो जाता है। उपमानार्थापत्ति इस प्रकार से है, यथा-रोझरूप उपमानके ज्ञान द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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