________________
उपमान विचार:
४६
गवयश्चाप्यसम्बन्धान गोलिङ्गत्वमृच्छति । सादृश्यं न च सर्वेण पूर्व दृष्ट तदन्वयि ॥ ३ ॥ एकस्मिन्नपि दृष्ट र्थे द्वितीयं पश्यतो वने । सादृश्येन सहैवास्मिस्तदैवोत्पद्यते मतिः ।। ४ ॥"
[ मी० श्लो० उपमानपरि० श्लो०४३-४६ ] इति ।
भी नहीं अतः इसका साध्य साधन रूपसे अन्वय निश्चय होना अशक्य है ॥३॥ अत: ऐसा निष्कर्ष निकलता है कि एक गो आदि पदार्थको देखनेके बाद दूसरे गवयादि पदार्थको वनमें देखनेपर “यह उसके समान है" इसप्रकारका सादृश्यका जो ज्ञान होता है वह उपमा प्रमाण है, न कि अनुमान प्रमाण है, क्योंकि अनुमानप्रमाण मानने में उपर्युक्त रीतिसे बाधा आती है ॥४॥ इसप्रकार अनुमानादिसे पृथक ऐसा उपमाप्रमाण मीमांसक मतमें इष्ट माना जाता है ।
* उपामाप्रमाण समाप्त *
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org