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________________ प्रमेय कमलमार्त्तण्डे प्रसङ्गश्च । न च सादृश्यमत्र प्राक्प्रमेयेरण प्रतिबद्ध प्रतिपन्नम् । न चान्वयप्रतिपत्तिमन्तरेण हेतो: साध्यप्रतिपादकत्वमुपलब्धम् । ततो गवार्थदर्शने गवयं पश्यतः सादृश्येन विशिष्ट े गवि पक्षधर्मत्व ग्रहणं सम्बन्धानुस्मरणं चान्तरेण प्रतिपत्तिरुत्पद्यमाना नानुमानेऽन्तर्भवतीति प्रमाणान्तरमुपमानम् । उक्त ं च"न चैतस्यानुमानत्वं पक्षधर्माद्यसम्भवात् । प्राक्प्रमेयस्य सादृश्यं धर्मित्वेन न गृह्यते ॥ १ ॥ गवये गृह्यमाणं च न गवार्थानुमापकम् । प्रतिज्ञार्थकदेशत्वाद्गोगतस्य न लिङ्गता ॥ २ ॥ ४६८ गवयगत सादृश्यको भी हेतु नहीं बना सकते । गाय गवय के समान होती है ऐसा सिद्ध करने के लिए गायमें होनेवाली सदृशताको ही हेतु बनाया जाय [ गौः गवयेन सदृशः गोगत सदृशत्वात् ] तो प्रतिज्ञाका एक देश रूप सदोष हेतु होने का प्रसंग आता है । तथा यह गोगत सादृश्य पहले से अविनाभावरूपसे जाना हुआ भी नहीं है । हेतु के अविनाभावका निश्चय हुए विना सपक्ष में अन्वय की प्रतिपत्ति भी नहीं होती और अन्वय की प्रतिपत्ति ( जानकारी ) के विना हेतु साध्यका गमक होता हुआ कहीं देखने में नहीं आता है । इस प्रकार सादृश्य सामान्यादि में पक्ष धर्मत्वादि सिद्ध नहीं होते, अतः जिसने गायको देखा है ऐसे पुरुषके गवयको वर्त्तमान में देखते हुए सादृश्यसे विशिष्ट गाय है ऐसा पक्षधर्मग्रहण और संबंधका स्मरण हुए विना ही " यह गवय गाय के समान है" ऐसा ज्ञान होता है इसलिये इस ज्ञानको अनुमान में अन्तर्भूत नहीं कर सकते, इस प्रकार उपमा प्रमाण पृथक् रूपसे सिद्ध होता है । कहा भी है - पक्षधर्मत्वादि का असंभव होनेसे इस उपमा प्रमाणको अनुमानप्रमाण में अन्तर्हित नहीं कर सकते, प्रमेयके ( गोगत या गवयगतके) सादृश्यको पहले धर्मीपने से ग्रहण नहीं किया है [ अतः अन्वय भी नहीं होता ] || १ || गवयमें ग्रहण किया हुआ सादृश्य गोका अनुमापक नहीं होता क्योंकि "यह सादृश्य इस पक्षका धर्म है" ऐसा पक्षधर्मपनेसे निश्चित नहीं है और यदि गोगत सादृश्यसे गायकी गवयके साथ समानता सिद्ध करना करे अर्थात् " गोगत सदृशता के कारण गो गवयके समान है" इस तरह का अनुमान वाक्य कहे तो प्रतिज्ञाका एक रूप सदोष हेतु वाला अनुमान कहलायेगा, अतः गोगत सादृश्यको हेतु बनाना अशक्य है || २ || गवयगत सादृश्य गो के साथ संबद्ध नहीं होने से वह भी गायका हेतु नहीं बनता । सभी पुरुषोंने इस सादृश्य को देखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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