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________________ उपमानविचारः ४१७ प्रत्यक्षेपि यथा देशे स्मर्यमाणे च पावके । विशिष्ट विषयत्वेन नानुमानाप्रमाणता ।। ३ ।।" [मी० श्लो० उपमानपरि० श्लो० ३७-३६ ] इति । न चेदं प्रत्यक्षम् ; परोक्षविषयत्वात्सविकल्पकत्वाच्च । नाप्यनुमानम् ; हेत्वभावात् । तथा हिगोगतम्, गवयगतं वा सादृश्यमत्र हेतुः स्यात् ? तत्र न गोगतम् ; तस्य पक्षधर्मत्वेनाग्रहणात् । यदा हि सादृश्यमात्र मि, 'स्मर्यमाणेन गवा विशिष्ट म्' इति साध्यम्, यदा च तादृशो गौः; तदा न तद्धर्मतया ग्रहणमस्ति । अत एव न गवयगतम् । गोगतसादृश्यस्य गोर्वा हेतुत्वे प्रतिज्ञार्थंकदेशत्व मान का विषय धूम और अग्नि है, वह यद्यपि प्रत्यक्ष स्मरणादि से जाना हुआ रहता है फिर भी विशिष्टविषय का ग्राहक होने से उसमें प्रामाण्य माना जाता है। वैसे ही उपमान में गाय का स्मरण और रोझ का प्रत्यक्ष होने पर भी सादृश्य रूप विशिष्ट ज्ञान को उत्पन्न करानेवाला होने से प्रमाणता है ॥ ३ ॥ यह उपमान प्रमाण प्रत्यक्षरूप नहीं है, क्योंकि वह परोक्षविषयवाला है और सविकल्पक है । तथा-यह उपमानप्रमारण अनुमानरूप भी नहीं है, क्योंकि इस ज्ञान में हेतु का अभाव है, यदि कहा जाये कि हेतु है तो वह कौनसा है ? क्या गाय में होने वाला सादृश्य हेतु है या रोझ में होनेवाला सादृश्य हेतु है ? गाय में रहनेवाला सादृश्य हेतु बन नहीं सकता, क्योंकि वह पक्षधर्मरूप ग्रहण करने में नहीं आया है । कैसे - सो बताते हैं जब सादृश्य सामान्यको पक्ष और स्मरण में आयी हुई गायके समान है ऐसा साध्य बनाया जाता है ( अयं गवयः स्मर्यमाण गो समानः ) अथवा उस गायके समान यह गवय है ऐसा पक्ष बनाया जाता है [ गवय समान: गौः ] उस समय यह सादृश्य पक्षका धर्म है इसरूपसे ग्रहण नहीं होता है, अर्थात् जैसे धूम अग्निका धर्म होता है ऐसा हमें पहलेसे ही मालूम रहता है अत: पर्वतपर अग्निको सिद्ध करते समय धूमको हेतु बनाया जाता है, किन्तु "गायके समान गवय है क्योंकि गायमें होनेवाले अवयवोंके सदृश है" ऐसे अनुमान प्रयोगसे गवयको गायके सदृश सिद्ध करते समय "गोगत सदृशत्वात्" ऐसा हेतु नहीं बना सकते क्योंकि गो और गवयकी समानता होती है ऐसा हमें पहलेसे निश्चित रूपसे मालूम नहीं रहता है। जैसे गोगत सादृश्य पक्षधर्म रूपसे निश्चित नहीं है वैसे गवयगत सादृश्य भी पक्षधर्मरूपसे निश्चित नहीं है अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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