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प्रतिज्ञाश्लोकः ये नूनं प्रथयन्ति नोऽसमगुणा मोहादवज्ञां जनाः, ते तिष्ठन्तु न तान्प्रति प्रयतित: प्रारभ्यते प्रक्रमः । संतः सन्ति गुणानुरागमनसो ये धीधनास्तान्प्रति, प्रायः शास्त्रकृतो यदत्र हृदये वृत्त तदाख्यायते ।। ३ ।। त्यजति न विदधानः कार्यमुद्विज्य धीमान् खलजनपरिवृत्तः स्पर्धते किन्तु तेन । किमु न वितनुतेऽर्कः पद्मबोधं प्रबुद्धस्तदपहृतिविधायी शीत रश्मिर्यदीह ।। ४ ।। अजडमदोषं दृष्ट्वा मित्रं सुश्रीकमुद्यतमतुष्यत् । विपरीतबन्धुसङ्गतिमुगिरति हि कुवलयं किं न ।। ५ ।।
इस संसार में यद्यपि बहुत से पुरुष मोहबहुलता के कारण ईर्ष्यालु-गुणों को सहन नहीं करने वाले अथवा वक्रबुद्धि वाले हैं। वे इस ग्रंथ की अवज्ञा करेंगे; सो वे रहे आवें, हमने यह रचना उनके लिए प्रारम्भ नहीं की है, किन्तु जो बुद्धिमान् गुणानुरागी हैं उनके लिये यह माणिक्यनंदी के परीक्षामुख ग्रंथकी टीका प्रवृत्त हुई है ॥३॥
___ जो बुद्धिमान होते हैं वे प्रारब्ध कार्य को दुष्ट पुरुषों की दुष्टता से घबड़ाकर नहीं छोड़ते हैं, किन्तु और भी अच्छी तरह से कार्य करने की स्पर्धा करते हैं, देखिए- चन्द्र कमलों को मुरझा देता है तो भी क्या सूर्य पुनः कमलों को विकसित नहीं करता अर्थात् करता ही है ॥४॥
अजड़, निर्दोष, शोभायुक्त ऐसे मित्र को देखकर क्या जगत् के जीव विपरीत संगति को नहीं छोड़ते हैं ? अर्थात् छोड़ते ही हैं, अथवा सूर्य के पक्ष में-जो अजल-जल से नहीं हुआ, निर्दोष-रात्रि से युक्त नहीं, तेजयुक्त है ऐसे सूर्य के उदय को देखकर भी कुवलय-रात्रिविकासी कमल अपनी विपरीतबन्धु संगति को प्रर्थात् चन्द्रमा की संगति को नहीं बतलाता है क्या ? अर्थात् सूर्य उदित होने पर भी कुमुद संतुष्ट नहीं हुआ तो मालूम पड़ता है कि इस कुमुद ने सूर्य के विपक्षी चन्द्र की संगति की है, इसी प्रकार सज्जन के साथ कोई व्यक्ति दुष्टता या ईर्ष्या करे तो मालूम होता है कि इसने दुष्ट की संगति की है ॥५॥
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