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प्रमेयकमलमार्त्तण्डे
श्रीमदकलङ्कार्थोऽयुत्पन्नप्रज्ञैरवगन्तु न शक्यत इति तद्व्युत्पादनाय करतलामलकवत् तदर्थमुद्धृत्य प्रतिपादयितुकामस्तत्परिज्ञानानुग्रहेच्छाप्रे रितस्तदर्थप्रतिपादन प्रवरणं प्रकरणमिदमाचार्यः प्राह । तत्र प्रकरणस्य सम्बन्धाभिधेय रहितत्वाशङ्कापनोदार्थं तदभिधेयस्य चाऽप्रयोजनवत्त्वपरिहारानभिमतप्रयोजनवत्त्वव्युदासा शक्यानुष्ठानत्वनिराकरण दक्षमक्षुण्ण सकलशास्त्रार्थसंग्रहसमर्थं 'प्रमाण' इत्यादिश्लोकमाह
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में
भावार्थ - यहां पर प्रभाचन्द्राचार्य ने प्रसिद्ध कवि परंपरा के अनुसार परीक्षामुख सूत्र की टीका स्वरूप प्रमेयकमलमार्तण्ड ग्रन्थ की रचना के शुरुआत में सज्जन प्रशंसा और दुर्जन निंदा का वर्णन श्लोक नं० ३-४-५ किया है, इन श्लोकों का सारांश यह है कि इस जगत में मोहनीय कर्म के उदय के वशवर्ती - जीव दूसरों के गुणों को सहन नहीं करते हैं, गुणों में भी दोषों का आरोप करते हैं, किन्तु बुद्धिमान अपने प्रारब्ध किये हुए सत्कार्य को नहीं छोड़ते हैं, रात्रि में कमल मुरझाते हैं इसलिए सूर्य कमलों को विकसित न करे सो बात नहीं है । सज्जनों का कार्य निर्दोष विवेकपूर्ण तथा सुन्दर होता है तो भी दुर्जन उनकी उपेक्षा करके उल्टे निंदा ही करते हैं, किन्तु ऐसा करने से इन्हीं दुर्जनों की दुर्जनता प्रकट होती है, जैसे कि निर्दोष प्रकाशमान श्रीयुक्त सूर्य उदित होते हुए भी यदि कुमुद ( रात्रिविकासी कमल) खिलते नहीं हैं तो इसीसे उन कुमुदों की सदोषता अर्थात् रात्रि में खिलना सिद्ध होता है । श्री अकलंक प्राचार्य द्वारा कहे हुए जो ग्रन्थ हैं वे प्रति गहन गंभीर अर्थवाले हैं, उन्हें अल्पबुद्धिवाले व्यक्ति समझ नहीं सकते, प्रतः उन्हें वे समझ में आजावें इसलिये तथा उनकी बुद्धि विकसित होने के लिये हाथ में रखे हुए आंवले के समान स्पष्टरूप से उन्हीं कलंक के अर्थ को लेकर प्रतिपादन करने की इच्छा को रखने वाले, आचार्य अकलंकदेव के न्यायग्रन्थ का विशेषज्ञान तथा शिष्यों का अनुग्रह करने की इच्छा से प्रेरित होकर उस न्याय ग्रंथ के अर्थ का प्रतिपादन करने में दक्ष ऐसे इस प्रकरण को अर्थात् परीक्षा मुख सूत्रको माणिक्यनंदी प्राचार्य कहते हैं । शास्त्र की शुरुवात करते समय संबंधाभिधेय रहित की शंका को दूर करने के लिये अर्थात् शास्त्र में संबंधाभिधेय है इस बात को कहते हुए तथा प्रयोजन का परिहार और अनभिमत प्रयोजनव्युदास- यह शास्त्र अप्रयोजनभूत हो या अनिष्ट प्रयोजनवाला हो ऐसी शंका को दूर करते हुए और अशक्यानुष्ठान का निराकरण करने में चतुर संपूर्ण शास्त्र के अर्थ को संग्रह करने में समर्थ ऐसे प्रथम श्लोक को माणिक्यनदा आचार्य कहते हैं ।
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