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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे शास्त्रं करोमि वरमपतरावबोधो माणिक्यनन्दिपदपङ्कजसत्प्रसादात् । अर्थं न किं स्फुटयति प्रकृतं लघीयाँल्लोकस्य भानुकरविस्फुरिताद्गवाक्षः ।। २ ।। बताते हैं - विद्वान् सज्जन पुरुष जिन शास्त्र का अपने हृदय में मनन करें, कैसा है शास्त्र - सिद्धिका स्थान है अर्थात् भव्यजीवों को मुक्ति के लिये हेतुभूत है, मोहरूपी शत्रु का कषायों का हनन करने वाला है, कीर्तिप्राप्ति का एक अद्वितीय स्थान है, मिथ्यात्व का प्रतिपक्षी - अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में निमित्तभूत है, अक्षयसुख का मार्गदर्शक होने से अक्षयसुखस्वरूप है, समस्त शंकाओं को दूर करने वाला है, समस्त प्राणिगण का हितकारी है, प्रभाव तेज के करने में निमित्त एवं प्रमा-ज्ञान प्राप्ति में कारण है ऐसा शास्त्र होता है । गुरुस्तुतिरूप तीसरा अर्थ – एकदेश जिन अर्थात् गुरु जो कि सिद्धि का धाम बतलाने वाले या उस मार्ग पर चलने वाले होने से सिद्धिधाम है, अथवा जीवों के मनोवांछित कार्य की सिद्धि कराने वाले होने से सिद्धि के स्थान स्वरूप हैं, मोह शत्रु का नाश अर्थात् अनंतानुबंधी आदि १२ कषायों का उपशमन यादि करनेवाले, कीर्ति के स्थान अर्थात् जिनका यश सर्वत्र फैल रहा है, मिथ्यात्व के प्रतिपक्षी मतलब अपनी वाणी तथा लेखनी के द्वारा मतांतररूप मिथ्यात्व का विध्वंस करने वाले, तथा स्वयं सम्यग्दर्शन संयुक्त, तेजयुक्त, प्रमालक्षण अर्थात् प्रमाण का लक्षण करने में निपुण और प्राणियों के हितचिंतक ऐसे श्री गुरुदेव होते हैं, उनका सब लोग चिन्तवन करें | १ || अब श्री प्रभाचन्द्राचार्य अपनी गुरुभक्ति प्रकट करते हैं तथा सज्जन दुर्जन के विषय में प्रतिपादन करते हैं श्लोकार्थ – अल्पबुद्धिवाला मैं प्रभाचन्द्राचार्य श्री माणिक्यनंदी गुरु के चरणकमल के प्रसाद से श्रेष्ठ इस प्रमेय अर्थात् विश्व के पदार्थ वे ही हुए कमल उन्हें विकसित करने में मार्तण्ड - सूर्यस्वरूप ऐसे इस शास्त्र को करता हूं, ठीक ही है, देखो जगत में छोटा सा झरोखा भी सूर्यकिरणों से दृष्टिगोचर पदार्थों को स्पष्ट नहीं करता है क्या ? अर्थात् करता ही है, वैसे ही मैं कमबुद्धिवाला होकर भी गुरुप्रसाद से शास्त्र की रचना करने में समर्थ होऊंगा ॥ २ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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