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प्रमेयकमलमार्तण्डे
इत्यभिधानात् । द्वाभ्यां तु प्रमेय द्वित्वस्य ज्ञाने (5) स्य प्रमाणद्वित्वज्ञापकत्वायोगः, अन्यथा देवदत्तयज्ञदत्ताभ्यां प्रतिपन्नाद्ध मद्वित्वात् तदन्यतरस्याग्नि द्वित्वप्रतिपत्तिः स्यात् । द्वविध्यमिति हि द्विष्ठो धर्मः । स च द्वयोर्ज्ञाने ज्ञायते नान्यथा । न ह्यज्ञातस ह्यविन्ध्यस्य तद्गतद्वित्वप्रतिपत्तिरस्ति । परस्पराश्रयानुषङ्गश्च-सिद्ध हि प्रमाण द्वित्वेऽतः प्रमेय द्वित्वसिद्धिः, तस्याश्च प्रमाण द्वित्व सिद्धिरिति । अथान्यतः प्रमाणद्वित्वस्य सिद्धिः, व्यर्थस्तहि प्रमेयद्वित्वोपन्यास: । तदप्यन्यदेकं वा स्यात्, अनेकं वा ? एक चेद्विषयसकरः । प्रत्यक्षं हि स्वलक्षणाकारमनमानं त सामान्याकारम, तदद्वयस्यैकज्ञानवेद्यत्वे सुप्रसिद्धो विषयसङ्करः । अथानेकज्ञानवेद्यम् ; तदप्यपरेणानेकज्ञानेन वेद्य तदप्यपरेणेत्यनवस्था ।
है कि-भेदोंकी [विशेषोंकी] परावृत्तिसे रहित मात्र सामान्यका वेदन करनेवाला होनेसे तथा स्वलक्षणकी व्यवस्था नहीं करनेसे लिंग ज्ञान [अनुमान प्रमाण] सामान्यविषय वाला माना जाता है ।। १ ।।
अनुमान और प्रत्यक्ष दोनोंसे प्रमेयका द्वित्वपना जाना जाता है ऐसा कहेंगे तो वह प्रमेय द्वित्व प्रमाण द्वित्वका ज्ञापक नहीं बन सकता यदि इसतरहका दो ज्ञानों द्वारा ज्ञात हुआ प्रमेय द्वित्व ज्ञापक हो सकता है तो देवदत्त और यज्ञदत्त द्वारा जाने हुए धमद्वित्वसे उन दो पुरुषों में से किसी एकको अग्निके द्वित्वकी प्रतिपत्ति होना भी स्वीकार करना चाहिये ? [क्योंकि विभिन्न दो प्रमाणोंद्वारा ज्ञात हुआ प्रमेय द्वित्वज्ञापक बन सकता है ऐसा कहा है ] तथा द्वविध्य जो होता है वह दो पदार्थों में रहनेवाला धर्म होता है सो वह वैविध्य उन दोनों पदार्थों का ज्ञान होनेपर जाना जा सकता है अन्यथा नहीं, जैसे कि किसी पुरुषने सध्याचल और विन्ध्याचलको नहीं जाना है तो उन दोनों पर्वतोंमें होनेवाला द्वविध्य [ दो पना ] भी अज्ञात ही रहता है । तथा प्रमेयद्वित्व होनेसे [ प्रमेय यानी पदार्थ दो प्रकारके होनेसे ] प्रमाण दो प्रकारका है ऐसा सौगतका कहना अन्योन्याश्रय दोषसे भरा हुआ है, क्योंकि प्रमाणद्वित्व [प्रमाणका दोपना ] सिद्ध होनेपर उसके द्वारा प्रमेय द्वित्वकी सिद्धि होगी और प्रमेयद्वित्वके सिद्ध होनेपर प्रमाणद्वित्व सिद्धि होगी इसतरह परस्पराश्रित रहनेसे दोनों प्रसिद्ध रह जाते हैं । यदि कहा जाय कि प्रमाणद्वित्वकी सिद्धि प्रमेय द्वित्वसे न करके अन्य किसी ज्ञानसे करेंगे तो प्रमेयद्वित्व हेतुका उपन्यास करना व्यर्थ है, अर्थात् "प्रमाण दो प्रकार का है क्योंकि प्रमेय भूत विषय हो दो प्रकारका होता है" इसतरह प्रमेयद्वित्व हेतु द्वारा प्रमाणद्वित्वको सिद्ध करने की क्या आवश्यकता है ? क्योंकि प्रमाणद्वित्व किसी अन्य ही ज्ञान द्वारा सिद्ध होता है ? तथा यह भी प्रश्न होता है कि प्रमाण द्वित्वको
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