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________________ प्रमेय द्वित्वात् प्रमाणद्वित्वविचार: ननु स्वलक्षणाकारता प्रत्यक्षेणात्मभूतैव वेद्यते सामान्याकारता त्वन मानेन, तयोश्च स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धत्वात् प्रत्यक्ष सिद्धमेव प्रमाण द्वित्वं प्रमेय द्वित्वं च, केवलम् यस्तथा प्रतिपद्यमानोपि न व्यवहरति स प्रसिद्ध न प्रमेय विध्येन प्रमाणद्वविध्यव्यवहारे प्रवर्त्यते; तदप्यसारम् ; ज्ञानादर्थान्तरस्यानर्थान्तरस्य वा केवलस्य सामान्यस्य विशेषस्य वा क्वचिज्ज्ञाने प्रतिभासाभावात्, उभयात्मन एवान्तर्बहिर्वा वस्तुनोऽध्यक्षादिप्रत्यये प्रतिभासमानत्वात् । प्रयोग:-असति बाधके यद्यथा प्रतिभासते सिद्ध करनेवाला वह जो अन्य कोई ज्ञान है वह एक है अथवा अनेक है ? एक मानेंगे तो विषय संकर नामा दूषण होगा, कैसे सो ही बताते हैं-प्रत्यक्षप्रमाण स्वलक्षणाकार वाला होता है और अनुमान प्रमाण सामान्याकार वाला होता है ऐसा आप बौद्धका ही सिद्धांत है सो विलक्षण आकारवाले उन दोनों प्रमाणोंको एक ही ज्ञान जानेगा तो विषयसंकर स्पष्ट ही दिखायी दे रहा है। [ अर्थात् सामान्याकार और स्वलक्षणाकार भूत दो प्रमाणोंके दो विषयरूप प्राकार थे उन दोनोंको ग्रहण करनेसे दोनों विषयोंका [सामान्य और स्वलक्षणका] ग्रहण भी हो चुकता है और इसतरह एक ज्ञानमें दोनों की एक साथ प्रतिपत्तिरूप विषय संकर होता है] प्रमाणद्वित्वका ग्राहक जो अन्य कोई ज्ञान है वह अनेकरूप है अर्थात् अनेक ज्ञानोद्वारा प्रमाणद्वित्व जाना जाता है तो पुन: प्रश्न होगा कि वे अनेक ज्ञान भी किसी अपर अनेक ज्ञान द्वारा ही ज्ञात होते हैं क्या ? तथा वे अपर ज्ञान भी अन्य किसी ज्ञानसे वेद्य होंगे ? इसतरह अनवस्था आती है। बौद्ध-स्वलक्षणाकारता प्रत्यक्षद्वारा आत्मभूत ही वेदनकी जाती है और सामान्याकारता अनुमानद्वारा वेदन की जाती है तथा उन दोनों प्रमाणों की सिद्धि स्वसंवेदन प्रत्यक्षद्वारा हो जाया करती है अतः प्रमाण द्वित्व एवं प्रमेयद्वित्व दोनों भी प्रत्यक्षसे ही सिद्ध होते हैं, किन्तु इस व्यवस्थाको स्वसंवेदन प्रत्यक्षद्वारा जानता हुआ भी जो मनुष्य अपने व्यवहार में नहीं लाता है उस पुरुषको प्रसिद्ध प्रमेयद्वित्व हेतु द्वारा प्रमाणद्वित्व व्यवहारमें प्रवर्तित कराया जाता है। जैन- यह कथन असार है, ज्ञानसे सर्वथा अर्थांतरभूत या अनर्थांतर भूत अकेले सामान्य का अथवा विशेषका किसी भी ज्ञानमें प्रतिभास नहीं होता है । प्रत्यक्षादि ज्ञान में तो अंतस्तत्व बहिस्तत्वरूप चेतन और जड़ पदार्थ सामान्य विशेषात्मक ही प्रतिभासित हो रहे हैं । अनुमान प्रमाण द्वारा इसी बातको सिद्ध करते हैंबाधकके नहीं होनेपर जो जिसप्रकारसे प्रतिभासित होता है उसको उसीप्रकारसे स्वीकार करना चाहिये, जैसे नील पदार्थ नीलाकारसे प्रतिभासित होता है अत: उसे नीलरूपही स्वीकार करते हैं, प्रत्यक्षादि प्रमाण भी सामान्यविशेषात्मक पदार्थको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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