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________________ अथ प्रत्यक्षोद्देशः न चोहप्रमाणमन्तरेण 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणमगौणत्वात्' इत्याद्यभिधातुं शक्यम् । तथाहिगौणत्वमविसंवादित्वं वा लिङ्ग नाप्रसिद्धप्रतिबन्धं सत् प्रत्यक्षस्य प्रामाण्यमनुमापयेदतिप्रसङ्गात् । प्रतिबन्ध प्रसिद्धिवानवयवेनाभ्युपगन्तव्या, अन्यथा यस्यामेव प्रत्यक्षव्यक्ती प्रामाण्येनागौणत्वादेरसौ सिद्धस्तस्यामेवागौणत्वादेस्तत्सिध्येत्, न व्यक्त्यन्तरे तत्र तस्यासिद्धत्वात् । न चासौ साकल्येनाध्यक्षात्सिध्येत्तस्य सन्निहितमात्रविषयकत्वात् । अथैकत्र व्यक्तौ प्रत्यक्षेणानयोः सम्बन्धं प्रतिपद्यान्यत्राप्येवंविधं प्रत्यक्षं प्रमाणमित्यगौणत्वादिप्रामाण्ययोः सर्वोपसंहारेण प्रतिबन्धप्रसिद्धिरित्यभिधीयते ; न प्रविषये सर्वोपसंहारेण प्रतिपत्तेरयोगात् । सर्वोपसंहारेण प्रतिपत्तिश्च नामान्तरेणोह एवोक्तः स्यात् । शक्य नहीं है, इसीको बताते हैं - गौणत्वात् प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्" ऐसे अनुमान वाक्य में जो गौणत्व हेतु दिया जाता है अथवा श्रविसंवादित्व रूप हेतु दिया जाय तो वे दोनों ही हेतु अज्ञात अविनाभाव संबंध वाले होंगे तो प्रत्यक्ष प्रामाण्यपनेका अनुमाप नहीं लगा सकते हैं, यदि प्रज्ञात अविनाभाव संबंध से भी अनुमाप लगा सकते हैं तो जिस पुरुषके धूम अग्निका अविनाभाव अज्ञात हो उस पुरुषके भी धूमको देखकर अग्निका ज्ञान होने लगेगा । इसतरह का प्रतिप्रसंग उपस्थित होगा । ४७५ अविनाभावसंबंध की निश्चिति साकल्य रूपसे स्वीकार करनी ही होगी अन्यथा जिस किसी एक प्रमाण में प्रगौणत्वादिका प्रामाण्य के साथ अविनाभाव संबंध सिद्ध हुआ हो सिर्फ उसी एक प्रमाण में प्रत्यक्ष प्रमाणता सिदुध होगी, अन्य प्रत्यक्ष प्रमाण में नहीं, क्योंकि अन्य प्रमाण में अविनाभाव संबंध असिद्ध है । यहां कोई कहे कि अगौणत्व और प्रामाण्यका अविनाभाव साकल्य रूपसे सभी प्रत्यक्ष प्रमाणों में सिद्ध करनेवाला प्रत्यक्षप्रमाण ही है वही इस अविनाभावका निश्चय करा देगा ? सो बात असंभव है, क्योंकि प्रत्यक्षप्रमाण सिर्फ सन्निहित [ निकटवर्ती ] पदार्थको विषय करता है । चार्वाक - किसी एक प्रमाण में इन गौणत्व और प्रामाण्यका अविनाभाव संबंध को भली प्रकारसे समझकर अन्य सभी प्रमाणों में गौणत्व और प्रामाण्यका सर्वोपसंहार रूपसे अविनाभाव संबंध सिद्ध किया जायगा कि सभी प्रत्यक्ष प्रमाण इसीप्रकार के होते हैं इत्यादि । जैन - ऐसा नहीं हो सकता, प्रत्यक्ष प्रमाणका प्रविषय होनेके कारण सर्वोपसंहार रूप से अविनाभावकी प्रतिपत्ति होना शक्य है [ अर्थात् सर्वोपसंहारी व्याप्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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