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________________ प्रमेयकमलमार्त्तण्डे अग्निधूमादीनां चैवमविनाभावप्रतिपत्तिः किन्न स्यात् ? येन 'अनुमानमप्रमाणमविनाभावस्याखिलपदार्थाक्षेपेण प्रतिपत्तुमशक्यत्वात्' इत्युक्त शोभेत । ४५६ किञ्चानुमानमात्रस्याप्रामाण्यं प्रतिपादयितुमभिप्रेतम्, अतीन्द्रियार्थानुमानस्य वा ? प्रथमपक्षे प्रतीतिसिद्ध सकलव्यवहारोच्छेदः । प्रतीयन्ते हि कुतश्चिदविनाभाविनोऽर्थादर्थान्तरं प्रतिनियतं प्रतियन्तो लौकिकाः, न तु सर्वस्मात्सर्वम् । द्वितीयपक्षे तु कथमतीन्द्रियप्रत्यक्षैत र प्रमाणानामगौणत्वादिना प्रामाण्येतरव्यवस्था ? कथं वा परचेतसोऽतीन्द्रियस्य व्यापारव्याहारादिकार्यविशेषात् प्रतिपत्तिः ?, प्रत्यक्ष प्रमाणका विषय ही नहीं है ] एक बात यह भी है कि यदि आप सर्वोपसंहार रूपसे प्रतिपत्ति होना स्वीकार करते हैं तो नामान्तरसे तर्क प्रमाणका ही स्वरूप प्रा जाता है, तथा जिसप्रकार प्रयोगत्व और प्रमाणत्वका अविनाभाव प्रत्यक्ष प्रमाण में प्रसिद्ध होता है उसीप्रकार अग्नि और धूम प्रादिका अविनाभाव क्यों नहीं प्रसिद्ध होगा ? अर्थातु होगा ही । अतः आपका पूर्वोक्त कथन प्रयुक्त सिद्ध होता है कि संपूर्ण साध्यसाधनभूत पदार्थोंका अविनाभाव जानना अशक्य होनेसे अनुमान ज्ञान प्रमाण है इत्यादि । तथा यह बताइये कि सारे ही अनुमान ज्ञान अप्रमाणभूत मानना इष्ट है अथवा अतीन्द्रियको विषय करनेवाले अनुमान श्रप्रमाणभूत मानना इष्ट है ? प्रथमपक्ष कहे तो प्रतीति सिद्ध सकल व्यवहार नष्ट होवेगा, क्योंकि व्यवहार में देखा जाता है कि लौकिक जन किसी एक अविनाभावी हेतु द्वारा अर्थसे अर्थांतर भूत पदार्थका निश्चय करते हैं किन्तु हर किसी सभी हेतु द्वारा सभी पदार्थका निश्चय नहीं करते [ अर्थात् प्रविनाभावी हेतु वाले अनुमान ज्ञान प्रमाणताकी कोटि में आ जानेसे सभी अनुमान अप्रामाणिक है ऐसा कहना बाधित होता है ] । द्वितीयपक्ष - अतीन्द्रिय अर्थको ग्रहण करनेवाले अनुमानको अप्रमाणभूत मानते हैं ऐसा कहे तो प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्षप्रमाण और अतीन्द्रिय अनुमान प्रमाण इन दोनों ज्ञानों का क्रमशः प्रगौणत्व और गौणत्वादि हेतु द्वारा प्रामाण्य और अप्रामाण्य किस प्रकार व्यवस्थित होगा ? एवं परके अतीन्द्रियभूत मनकी व्यापार, व्याहारादि कार्य विशेष द्वारा सिद्धि होती है वह किसप्रकार होवेगी ? तथा स्वर्ग अदृष्ट देवता आदिका श्रनुपलब्धि हेतु द्वारा प्रतिषेध करना भी किस प्रकार युक्त हो सकेगा । सो यह चार्वाक गौण होनेसे एक प्रत्यक्ष ही प्रमारणभूत है अनुमान अगोण नहीं है अतः उससे पदार्थका निश्चय नहीं होता, इत्यादि अनुमान वाक्य रूप कथन करता है । पुनश्च इसी अनुमान द्वारा प्रत्यक्षादिकी प्रमाणता सिद्ध करता है सो यह किसप्रकार शक्य है ? यदि अनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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