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प्रामाण्यवादः
४६७ अन्य प्रमाणकी आवश्यकता पड़ेगी ही पुनः उस द्वितीय प्रमाण में भी शंका हो सकती है ? अतः अनवस्था दोष तो तदवस्थ ही है।
"वेदमें स्वतः प्रामाण्य होता है क्योंकि वह अपौरुषेय है" ऐसा कहना भी प्रसिद्ध है । अपौरुषेयका और प्रामाण्यका कोई अविनाभाव तो है नहीं कि जो जो अपौरुषेय है वह वह प्रमाणभूत है, यदि ऐसा मानेंगे तो चोरी आदिका उपदेश भी अपौरुषेय है [किसीपुरुषने अमुक कालमें चोरी आदिका उपदेश दिया ऐसा निश्चय नहीं अपितु वह विना पुरुषके अपने आप प्रवाहरूपसे चल आया है] उसे भी प्रामाणिक मानना पड़ेगा ? वेदके अपौरुषेयके विषय में आगे [दूसरे भागमें] एक पृथक् प्रकरण आने वाला है उसमें इसका पूर्णरूपेण निराकरण करनेवाले हैं अतः यहां अधिक नहीं कहते ।
___ इसप्रकार प्रत्यक्षादि सभी प्रमाणोंमें स्वतः ही प्रामाण्य प्राता है ऐसा कहना गलत ठहरता है । कहने का अभिप्राय यह है कि "इदं जलमस्ति" यह जल है ऐसा हमें प्रतिभास हुअा, अब यदि यह ज्ञान पूर्वके अभ्यस्त विषयमें हुआ है अर्थात् पहले जिस सरोवर आदिमें स्नानादि किये थे उसी स्थानपर जल ज्ञान हुअा है तो उसमें अन्य संवादक ज्ञानकी आवश्यकता नहीं है वह तो स्वतः ही प्रामाण्यभूत कहलायेगा। किन्तु अचानक किसी अपरिचित ग्रामादिमें पहुंचते हैं और वहांपर दूरसे जल जैसा दिखाई देने लगता है तब किसी अन्य पुरुषको पूछकर अथवा स्वयं निकट जाकर स्नानादि क्रिया द्वारा उस जल ज्ञानका प्रामाण्य निश्चित होता है, अथवा दूरसे ही अनुमान द्वारा जल ज्ञानकी प्रामाणिकता निश्चित करता है कि यहां निकटमें अवश्य ही जल है क्योंकि कमलकी सुगंधी पा रही, शीतल हवा भी पा रही इत्यादि । सो अभ्यस्त और अनभ्यस्त दशा की अपेक्षा प्रामाण्य स्वत: और परत: हुआ करता है सर्वथा एकांत नहीं है, इसी स्याद्वाद द्वारा ही वस्तु तत्व सिद्ध होता है अतः श्री माणिकनंदी आचार्यने बहुत ही सुन्दर एवं संक्षिप्त शब्दों में कहा है कि "तत् प्रामाण्यं स्वतः परतश्च" ।।१३।।
____ इसप्रकार इस प्रथम परिच्छेदमें प्रमाणके विषयमें विभिन्न मतों की विभिन्न मान्यताओंका विवेचन एवं निराकरण करके प्रमाणका निर्दोष लक्षण "स्वापूर्वार्थ व्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम्' सिद्ध किया है। अंतमें उसके प्रामाण्यके बारेमें मीमांसक का सर्वथा स्वतः प्रामाण्यवादका जो पक्ष है उसका उन्मूलन किया है, और प्रामाण्य को भी स्याद्वाद मुद्रासे अंकित किया है ।
___* प्रामाण्यवाद का सारांश समाप्त *
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