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प्रत्यक्षक प्रमाणवादका पूर्वपक्ष नास्तिक वादी चार्वाक एक मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को ही स्वीकार करता है, उसका कहना है कि अनुमान द्वारा ज्ञात हुई वस्तु कभी असत्य भी ठहरती है, जैसे प्रसिद्ध धूम हेतु से अग्निका अनुमान किया जाता है किन्तु यह धूम हेतु व्यभिचरित होता हुआ देखा जाता है, गोपाल घटिकादि में वूम तो रहता है पर वहां अग्नि तो उपलब्ध नहीं होती ? अतः अनुमान ज्ञान अप्रमारगभूत है, तथा गौण होनेके कारण भी अनुमानको अप्रमाण माना जाता है, यौगादि परवादी अनुमान ज्ञानको प्रमाणभूत इसलिये मानते हैं कि उसके द्वारा स्वर्गादि परोक्ष पदार्थ सिद्ध किये जांय किन्तु विचार करके देखा जाय तो इस लोक संबंधी इन घट पटादि दृश्य पदार्थों को छोड़कर अन्य परलोक, प्रात्मा आदि पदार्थ हैं ही नहीं अतः उनको जानने के लिये अनुमान की आवश्यकता ही नहीं है।
यावज्जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणंकृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः ॥ १ ॥
अर्थ- जब तक जीना है तब तक सुखसे ही रहे, चाहे ऋण करके भी घतादि विषय सामग्री का उपभोग करना चाहिये, क्योंकि शरीरके नष्ट होनेपर [मरने के पश्चातु] फिर आना नहीं है न कहीं अन्यत्र जाना है, सब समाप्त हो जाता है ।
तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्ना: नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् । धर्मस्य तत्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः सपन्थाः ।। १ ।।
अर्थ-किसी वस्तुको तर्क द्वारा सिद्ध नहीं किया जा सकता क्योंकि उसी वस्तुके विषयमें अन्य अन्य विरुद्ध तर्क या युक्तियां भी पायी जाती हैं, भावना, नियोग आदि नाना अर्थों का प्रतिपादन करने के कारण श्रुति [वेद] भी प्रमाणभूत नहीं है, एवं ऐसा कोई मुनि नहीं है कि जिसके वचन प्रामाणिक माने जाय । धर्म कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है । जिस मार्गका महाजन अनुसरण करते हैं वही मार्ग ठीक है। इस तरह परलोक आदि परोक्ष पदार्थों का अस्तित्व नहीं होनेके कारण अनुमान आदि परोक्ष प्रमाणोंको माननेकी आवश्यकता नहीं रहती है । अतः एक प्रत्यक्षज्ञान हो प्रमाणरूप सिद्ध होता है ।
* पूर्वपक्ष समाप्त *
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