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प्रामाण्यवादः
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अपि च, 'अर्थक्रियाहेतुर्ज्ञानं प्रमाणम्' इति प्रमाणलक्षणं तत्कथं फलेप्याशङ्कयते ? यथा 'अंकुरहेतुर्बीजम्' इति बी जलक्षणस्यांकुरेऽभावात् नैवं प्रश्नः ‘कथमंकुरे बीजरूपता निश्चीयते' इति, एवमत्रापि । यच्च दमुक्तम् "श्रोत्रधीश्चाप्रमाणं स्यादितराभिरसङ्गतिः(तेः)।"
[ मी• श्लो० सू० २ श्लो• ७७ ] इति; तदप्ययुक्तम् ; वीणादिरूपविशेषोपलम्भतस्तच्छब्दविशेषे शङ्काव्यावृत्तिप्रतीतेः कथमि
क्रिया ज्ञान में ऐसी बाधा नहीं आती है। यदि जाग्रद दशा का अर्थ क्रिया का ज्ञान विना पदार्थ के होने लगे तो फिर ऐसा कौन सा और न्यारा ज्ञान है कि जो अर्थ का अव्यभिचारी [ अर्थ-के विना नहीं होने वाला ] है ? एवं जिसके बलसे वस्तु व्यवस्था होती है ? मतलब जाग्रद् दशा में जो अर्थ क्रिया दिखाई देती है उसको देखकर सिद्ध करते हैं कि यह पदार्थ इस काम को करता है, इत्यादि यदि इस जाग्रद् [सावधान अवस्था का] ज्ञान भी विना पदार्थ के होता है ऐसा माना जाय तो फिर पदार्थ व्यवस्था बनेगी ही नहीं । तथा आप लोग जो ज्ञान अर्थ क्रिया का कारण है वह प्रमाण है ऐसा तो मानते हैं, फिर उसी के फल में किसप्रकार शंका करते हैं ? जैसे अंकुर का जो कारण होता है वह बीज कहलाता है ऐसा बीज का लक्षण निश्चित होने पर फिर प्रश्न नहीं होता है कि अंकुर बीज से कैसे हुआ, अंकुर में बीज रूपता का निश्चय कैसे करें ? इत्यादि सो जैसे बीज और अंकुर के विषय में शंका नहीं होतो वैसे ही अर्थ क्रिया के ज्ञान में प्रामाण्य की शंका नहीं होती, वह तो पूर्व ज्ञान का ही फलरूप है। मीमांसकों के ग्रन्थ में लिखा है कि कर्ण से होने वाला ज्ञान यदि इतर इन्द्रिय ज्ञानों से असंगत है तो वह अप्रमाणभूत कहलाता है, इत्यादि सो यह कथन प्रयुक्त है, बात यह है कि किसी एक इन्द्रिय के ज्ञान का अन्य इन्द्रिय ज्ञानसे बाधित होना जरूरी नहीं है श्रोनेन्द्रिय से वीणादि का शब्द सुना और उसका रूप विशेष भी देख लिया हो फिर शब्द में शंका नहीं होती कि यह शब्द वीणाका है या वेणुका है ? इसलिये ऐसा नियम से नहीं कह सकते कि श्रोत्रेन्द्रिय ज्ञान इतर इन्द्रिय ज्ञानों से बाधित ही होता है । अतः उपर्युक्त अर्ध श्लोक का अर्थ-"श्रोत्रधीश्चाप्रमाणं स्यादितरामिर संगतेः ।। गलत सिद्ध होता है । श्रोत्र संबंधी जो ज्ञान है उसमें भी अर्थ क्रिया का अनुभव होता है अत: वह भी स्वतः प्रामाण्यरूप है जैसे कि गन्ध ज्ञान, रसादि ज्ञान स्वतः प्रामाण्यरूप माने हैं। इस श्रोत्रज्ञान में संशयादि का अभाव रहता
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