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________________ ४५० प्रमेय कमलमार्तण्डे तराभिरसङ्गतिः ? श्रोत्रबुद्ध रर्थक्रियानुभवरूपत्वेन स्वतः प्रामाण्यसिद्धश्च गन्धादिबुद्धिवत् । संशयायभावान्नान्येन सङ्गत्यपेक्षा । यत्रैव हि संशयादिस्तत्रैव साऽपेक्षते नान्यत्र अतिप्रसङ्गात् । अथोच्यते अर्थक्रियाऽविसंवादात्पूर्वस्य प्रामाण्यनिश्चये मणिप्रभायां मरिणबुद्ध रपि प्रामाण्यनिश्चयः स्यात् । तदप्यपर्यालोचिताभिधानम् ; एवंभूतार्थक्रियाज्ञानान्मरिणबुद्व रप्रामाण्यस्यैव निश्चयातेन संवादाभावात् । कुञ्चिकाविवरस्थायां हि मणिप्रभायां मणिज्ञानम् अपर (अपवर)कान्तर्देशसम्बद्ध तु मणावर्थक्रियाज्ञानमिति भिन्नदेशार्थग्राहकत्वेन भिन्नविषययोः पूर्वोतरज्ञानयोः कथमविस है अतः इसमें अन्य संवादक की अपेक्षा नहीं रहती। जहां जिस ज्ञान में संशयादि होते हैं वहां पर ही संवादक की अपेक्षा लेनी पड़ती है, सब जगह नहीं । विना संशय के भी संवादक की अपेक्षा लेना मानेंगे तो खुद को प्रतीत हुए सुख प्रादि में भी अन्य की अपेक्षा लेनी होगी ऐसा प्रति प्रसंग उपस्थित होगा। शंका-अर्थ क्रिया में अविसंवाद होने से ज्ञान में प्रामाण्य का निश्चय होता है ऐसा स्वीकार किया जाय तो मणि-रत्न की कान्ति में उत्पन्न हुई मणि की बुद्धि को भी प्रमाणभूत मानने का प्रसंग प्राप्त होगा ? समाधान - यह शंका भी असत् है क्योंकि अर्थ क्रिया का ज्ञान उस मणि के प्रतिभास को अप्रामाण्य ही सिद्ध कर देगा, अर्थात् यदि मणि की प्रभा में मणि का ज्ञान हो जाय तो उसे उठाने' आदि रूप जो अर्थ क्रिया होगी तो उसीसे उस ज्ञान में अप्रमाणता निश्चित हो जायगी, क्योंकि उस मणि प्रभा के ज्ञानको पुष्ट करनेवाला संवादक प्रमाण नहीं है । मणि प्रभा में मणि का प्रतिभास जो होता है उस विषय में बात ऐसी है कि खिड़की झरोका आदि के छेद से मरिण की कान्ति आती है उसे देखकर कदाचित ऐसा प्रतिभास होता है कि "यह मरिण है" किन्तु मणि को उठाना आभूषण बनाना आदि अर्थ क्रिया का ज्ञान तो कैमरे के अन्दर जहां मणि रखी है वहां मणि में ही होगा, इस प्रकार का मणि ज्ञान और मणि की अर्थ क्रिया का ज्ञान दोनों भिन्न भिन्न स्थान में हुए हैं भिन्न भिन्न ही इनका विषय है ऐसे पूर्वोत्तर काल में होने वाले ज्ञानों में अविसंवाद कैसे पा सकता है ? अर्थात् इसमें तो तिमिर [ अंधकार ] आदि से उत्पन्न हुए भ्रम ज्ञान के समान या रजत में प्रतीत हुए सीप के समान विसंवाद ही रहेगा, अविसंवाद नहीं आयेगा । और भी जो कहा गया है कि कहीं कूट [काल्पनिक] जयत गमें भी होने वाला ज्ञान प्रमाणभूत मानना चाहिये क्योंकि उसमें कतिपय अर्थ क्रिया देखी जाती है । सो उसमें जो कूट में कूट का ज्ञान हुआ है वह प्रमाणभूत ही है, किन्तु अकूट का ज्ञान प्रमाणभूत नहीं है क्योंकि उस ज्ञानका कोई संवादक प्रत्यय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001276
Book TitlePramey Kamal Marttand Part 1
Original Sutra AuthorPrabhachandracharya
AuthorJinmati Mata
PublisherLala Mussaddilal Jain Charitable Trust Delhi
Publication Year1972
Total Pages720
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Nyay
File Size15 MB
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