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प्रमेयकमलमार्तण्डे
वस्तुभूतायामवस्तुभूतायां वार्थक्रियायां तत्संवेदनम्' इति । वृद्धिच्छेदादिकं हि फलमभिलषितम्, तच्चे निष्पन्न नृडिव तृडिव)योगिज्ञानानुभवे किं तच्चिन्तासाध्यम् ?
न च स्वप्नार्थक्रियाज्ञानस्यार्थाभावेपि दृष्टत्वाज्जाग्रदर्थक्रियाज्ञानेपि तथा शङ्का; तस्यैतद्विपरीतत्वात् । स्वप्नार्थक्रियाज्ञानं हि सबाधम् ; तद्रष्टुरेवोत्तरकालमन्यथाप्रतीतेः न जाग्रद्दशाभावी ति । यदि चात्रार्थक्रियाज्ञानमर्थमन्तरेण स्यात् किमन्यज्ज्ञानमर्थाव्यभिचारि यबलेनार्थव्यवस्था ?
लगी थी, गरमी सता रही थी, जंगल में भटकते हए दूर से सरोवर दिखायी दिया तब वह सीधा जाकर स्नान करना, पानी पीना आदि कार्य करता है न कि यह सोचता है कि "यह जल है" इसमें शीतलता गुण है सो इस गुण को यौगमत के समान पृथक माने अथवा सांख्य चार्वाक के समान अपृथक् माने, जैन मीमांसकों के मान्यतानुसार शीत गुण जल से अपृथक् पृथक् दोनों रूप है, बौद्ध गुण को गुणीसे अनुभयरूप बतलाते हैं, सांख्य जलादि सभी वस्तु को त्रिगुणात्मक प्रधान की पर्याय बतलाते हैं, बौद्ध के एक भाई परमाणुओं का समूह रूप वस्तु स्वीकार करते हैं इत्यादि दुनियां भर की चिंता उस पिपासु को नहीं सताती है उसको तो प्यास-गरमी सता रही है वह मिट गयी कि वह सफल मनोरथ वाला होकर, अपने मार्ग में लग जाता है, इस कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि अर्थ क्रिया का बोध होने पर पुनः शंका या कोई आपत्ति आती ही नहीं इसलिये आगे के ज्ञानों की अपेक्षा नहीं होती कि जिन्हें लेकर अनवस्था हो । अर्थ क्रिया के इच्छुक पुरुष जिस प्रकार पदार्थ के गुण आदि में लक्ष्य नहीं देते हैं, उसी प्रकार अर्थ क्रिया के विषय में भी लक्ष्य नहीं रखते कि वास्तविक अर्थ क्रिया के होने पर उसका संवेदन (ज्ञान) हो रहा है अथवा अवास्तविक अर्थ क्रिया के होने पर हो रहा है ? इत्यादि जल की अर्थ क्रिया के इच्छुक, पुरुष, तृष्णा शांत करना, शरीर का मैल दूर करना प्रादि फल की अभिलाषा करते हैं सो वह अभिलाषा पूर्ण हो जाने पर उन्हें जब संतोष होता है तो वे व्यर्थ की वस्तु की चिंता क्यों करें। कोई कहे कि स्वप्न में अर्थ क्रियाका ज्ञान विना पदार्थ के भी होता है, इसलिये शंका होती है कि जाग्रद दशा में जो अर्थक्रियाका ज्ञान हो रहा है वह कहीं विना पदार्थ के तो नहीं है ? इत्यादि सो ऐसी शंका बेकार है । स्वप्न में अनुभवित हुआ अर्थक्रियाका ज्ञान जाग्रद दशाके अर्थक्रिया ज्ञान से विपरीत है, देखो ! स्वप्न में अर्थक्रियाका जो ज्ञान होता है वह बाधायुक्त है, खुद स्वप्न देखने वाले को ही वह उत्तरकाल में [जाग्रद अवस्था में] अन्यथा [विपरीत अर्थ क्रिया का असाधक] दिखाई देता है, जानद दशा के अर्थ
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