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प्रामाण्यवादः
भूदित्यप्य समीचीनम् ; तस्यासंवादरूपत्वात्, अतः संवादकद्वारेणैवास्य प्रामाण्यं निश्चीयते ।
अर्थक्रियाज्ञानं तु साक्षादविसंवाद्यर्थक्रियालम्बनत्वान्न तथा प्रामाण्यनिश्चयभाक् । तेन 'कस्यचित्तु यदीष्येत' इत्यादि प्रलापमात्रम् । न चार्थक्रियाज्ञानस्याप्यवस्तुवृत्तिशङ्कायामन्यप्रमाणापेक्षयानवस्थावतारः । प्रस्यार्थाभावेऽदृष्टत्वेन निरारेकत्वात् । यथैव हि किं 'गुणव्यतिरिक्त ेन गुणिनाऽर्थक्रिया सम्पादिता उताऽभ्यतिरिक्त नोभयरूपेणानुभयरूपेण, त्रिगुणात्मना वार्थेन, परमाणुसमूहलक्षणेन वा' इत्याद्यर्थक्रियार्थिनां चिन्ताऽनुपयोगिनी निष्पन्नत्वाद्वाञ्छितफलस्य तथेयमपि कि
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उसके विषय में तो यह समझना चाहिये कि वह ज्ञान साक्षात् ही विसंवाद रहित होता है, क्योंकि स्नान पानादि अर्थ क्रिया ही जिसका अवलंबन [विषय ] है तो ऐसे ज्ञान में संवादक की अपेक्षा लेकर प्रामाण्य का निश्चय नहीं हुआ करता है, वह तो स्वतः ही प्रामाण्य स्वरूप होता है । भाट्ट ने कहा था- यदि किसी एक संवादक ज्ञान में स्वतः प्रामाण्य होता है तो प्रथम ज्ञानमें स्वतः प्रामाण्य मानने में क्यों द्वेष करते हो ? इत्यादि सो यह कथन भी बकवाद मात्र है, क्योंकि हम जैन इस बातको बता चुके हैं कि संवादक ज्ञान अभ्यस्त विषयक होनेसे स्वतः प्रामाणिक रहता है, किन्तु इस तरह सभी ज्ञान अभ्यस्त नहीं हुआ करते । मीमांसकने कहा था कि अर्थक्रियाका ज्ञान भी पदार्थ के प्रभाव हो सकता है अतः उसके अवास्तविकता के बारे में शंका उपस्थित हो जाय तो पुनः अन्य प्रमाणकी अपेक्षा लेनी पड़ेगी और इस तरह अनवस्था आवेगी; सो यह कथन अविचार पूर्ण है, अर्थक्रियाका कभी भी पदार्थ के अभाव में देखा नहीं जाता, अत: उसमें अवास्तविकता की शंका होना असंभव है, अर्थात् " यह जल है" ऐसा ज्ञान होने के अनंतर उस जलकी अर्थक्रिया जो स्नान पानादि है वह सम्पन्न हो जाती है तब उसमें अवास्तविकता का कोई प्रश्न ही नहीं रहता ।
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एक बात और भी विचारणीय है कि जिस पदार्थ से जो अर्थ क्रिया सम्पन्न होती है उस पदार्थ में गुण हैं वे गुण पदार्थ से पृथक् हैं या अपृथक् हैं, उभयरूप हैं या अभय रूप हैं, ऐसा विचार अर्थक्रिया को चाहने वाले व्यक्ति को नहीं हुआ करता है, तथा यह पदार्थ सत्व रज, तम गुण वाला प्रधान है अथवा परमाणुत्रों का समूह रूप है | कैसा है ? किससे बना है ? इत्यादि चिंता अर्थ क्रियार्थी पुरुष नहीं किया करते हैं, उनके लिये इन विचारों की जरूरत ही नहीं, उनका कार्य स्नानपानादि है वह हुआ कि फिर वे सफल मनोरथ वाले कृतकृत्य हो जाते हैं । भावार्थ - किसी पुरुष को प्यास
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