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प्रमेयक मलमार्त्तण्डे
त्साधन निर्भासिज्ञानस्य प्रामाण्यं निश्चित्य प्रवर्तते । कृषीवलादयोपि ह्यनभ्यस्तबीजादिविषये प्रथमतरं तावच्छरावादावल्पतरबीजवपनादिना बीजाबीजनिर्धारणाय प्रवर्तन्ते, पश्चाद्द्दष्टसाधर्म्यात्परिशिष्टस्य निश्चितस्योपयोगाय परिहाराय च अभ्यस्तबीजादिविषये तु निःसंशयं प्रवर्त्तन्ते ।
यच्चाभ्यधायि-संवादप्रत्ययात्पूर्वस्य प्रामाण्यावगमेऽनवस्था तस्याप्यपरसंवादापेक्षाऽविशेषात् ; तदप्यभिधानमात्रम्; तस्य संवादरूपत्वेनापरसंवादापेक्षाभावात् । प्रथमस्यापि संवादापेक्षा मा
पहले देखे हुए अग्नि का रूप याद कर और वर्तमान में उसका स्पर्श शीतनिवारक जानकर संबंध का ज्ञान करता है कि इस प्रकार का रूप प्रतिभास किसी वस्तु का होवे तो वह शीतबाधा को दूर करने वाली वस्तु समझनी चाहिये । इस तरह साधन निर्भासी ज्ञान में प्रामाण्य देखकर इष्ट कार्य में ( शीतता को दूर करना आदि में ) प्रवृत्ति करता है । इसी विषय में अन्य दृष्टांत भी हैं, जैसे- किसानादि लोग विवक्षित गेहूं आदि बीजों की अंकुरोत्पादनरूप शक्ति को ( गुण धर्म को ) नहीं जानते हों, उन विवक्षित बीजों के विषय में अनभ्यस्त हों तो वे पहले सकोरा गमला आदि में थोड़े से बीजों को बो देते हैं और बीज बीज की परीक्षा करते हैं कि इस गमले में श्रमुक बीज बोये तो अंकुरे बढ़िया आये या नहीं इत्यादि, जब उन किसानों को बीज और बीज की परीक्षा हो जाती है तब उनमें से जिनके अंकूर ठीक उगे उन्हें बोने योग्य समझकर उन्हीं के समान जो बीज रखे थे उनका तो खेती में उपयोग करते हैं। और जो अबीज रूप से परीक्षा में उतरे थे उनको छोड़ देते हैं खेती में बोते नहीं हैं । इसी प्रकार कोई किसान बीज के विषय में अभ्यस्त है तो वे निःसंशय बीजवपन कार्य को करते हैं । इसलिये अनभ्यस्त अवस्था में संवादक से प्रामाण्य आने में चक्रक श्रादि दोष नहीं प्राते हैं ऐसा सिद्ध होता है । संवादक प्रत्यय से प्रामाण्य मानने पर जो अनवस्था दोष आने की बात भाट्टने कही थी सो भी ठीक नहीं, क्योंकि संवादक तो संवादस्वरूप ही है, उसको दूसरे संवादक ज्ञान की अपेक्षा नहीं पड़ती है । अन्यथा वह संवादक ही क्या कहलावेगा ।
शंका- ऐसी बात है तो प्रथम ज्ञान के प्रामाण्य में भी संवादक की उपेक्षा नहीं होनी चाहिये ?
समाधान - ऐसा प्रश्न गलत है, प्रथमज्ञान तो असंवाद रूप है, इसलिये उसमें संवादक ज्ञान से प्रामाण्य निश्चित किया जाता है । अर्थ क्रिया का जो ज्ञान है
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